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28... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन आहार में बढ़ती लोलुपता एवं उसकी तामसिकता आदि है। ऐसी भयावह स्थिति से छुटकारा पाने के लिए आहार की शुद्धता अत्यावश्यक है। प्राचीन उक्ति भी है कि "जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन।'
भारतीय समाज में Packed food का प्रचलन तो पाश्चात्य संस्कृति के अनुकरण करते हुए बढ़ गया है परंतु उसकी सात्विकता एवं प्रामाणिकता की जांच करने की वृत्ति अब तक हममें नहीं आई है। हम Packing की सुन्दरता या फिर Company Brand में मोहित होकर उसे खरीद लेते हैं। उसकी गुणवत्ता हमारे लिए अधिक मायने नहीं रखती। अन्य देशों में प्रत्येक पदार्थ के पीछे उसके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री एवं उसकी पौष्टिकता का वर्णन देना आवश्यक है जो हमारे यहाँ नहीं दिया जाता। इसलिए भी आज आहार विवेक अत्यावश्यक हो गया है। जैन मुनि के शुद्ध एवं सात्विक आहार की गवेषणा के पीछे ऐसे ही कई कारण अन्तर्भूत हैं।
यदि हम शुद्ध एवं सात्त्विक आहार की उपादेयता पर प्रबंधन की दृष्टि से विचार करें तो कई क्षेत्रों के नियंत्रण में यह अत्यंत उपयोगी है। सर्वप्रथम तो इसके द्वारा भावों का प्रबंधन होता है क्योंकि शुद्ध एवं सात्विक आहार विशुद्ध भावों का निर्माण करता है। विशुद्ध एवं निर्मल भावों के द्वारा व्यक्ति दूसरों की सद्भावना का पात्र बनता है तथा उन्हीं सद्भावों के आधार पर व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में शीघ्र प्रगति करता है। भावनात्मक आवेगों का प्रभाव हमारे शरीर पर भी पड़ता है ऐसा शरीर शास्त्रियों का मानना है अत: शारीरिक स्वस्थता में भी इसकी भूमिका महत्वपूर्ण हैं। इसी प्रकार Stress management (तनाव प्रबंधन) में भी आहार विशेष सहयोगी हो सकता है क्योंकि विभिन्न प्रकार के आहार का भिन्न-भिन्न प्रभाव हमारे मन मस्तिष्क पर देखे जाते हैं। जैसे गरिष्ठ आहार से कामवृत्ति, रुक्ष आहार से चिड़चिड़ापन, अति चटपटे आहार से भाषा अनियन्त्रण आदि पर प्रभाव पड़ता है इससे शुद्ध एवं सात्विक भोजन का महत्त्व स्वतः प्रमाणित हो जाती है।
इसके द्वारा आर्थिक प्रबंधन में भी सहयोग प्राप्त हो सकता है। सामान्य सात्विक आहार में व्यक्ति का जितना पैसा खर्च होता है उससे कई अधिक पैसा स्वाद लोलुपता के लिए खाये जाने वाले चटपटे पदार्थों में होता है और फिर उससे भी अधिक पैसा उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों के उपचार में होता है।