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22... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
मुनि तदनुसार उपदेश देकर जन सामान्य का कल्याण भी कर सकते हैं। इस प्रकार जैन धर्म में निर्दिष्ट भिक्षाचर्या स्वयं एक तपस्या है। जीवन की पवित्रता का महान मार्ग है।
आजकल भिक्षा के विरुद्ध जो आन्दोलन चल रहा है उसके साथ यह विचार करना आवश्यक है कि कौन किस तरह भिक्षा मांग रहा है ? उपाध्याय अमर मुनि के शब्दों में सबको एक लाठी से नहीं हांका जा सकता। यह सत्यं है कि आज राष्ट्र में भीखमंगों का दल जोरों पर है, हजारों-लाखों व्यक्ति साधु के नाम पर भिक्षा मांगकर देश के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहे हैं। 2 आचार्य हरिभद्रसूरि ने ऐसे मनुष्यों की भिक्षा को 'पौरूषघ्नी' बतलाया है और वह भिक्षा अवश्य ही निषिद्ध है।
आचार्य हरिभद्रसूरि रचित अष्टक प्रकरण में भिक्षा के तीन प्रकारों का उल्लेख है - 1. सर्वसम्पत्करी पौरूषघ्नी और 3. वृत्ति भिक्षा। सर्वसम्पत्करी भिक्षा त्यागी मुनियों की होती है । इस भिक्षा से साधक की आत्मा में, राष्ट्र में एवं समाज में सदाचार का संचार होता है । जो मनुष्य आलस्यवश पुरुषार्थ न करके साधु वेश पहनकर भिक्षा द्वारा आजीविका चलाते हैं वह पौरूषघ्नी भिक्षा है। दीन, अनाथ, पंगु आदि असहाय मनुष्य जो स्वयं कुछ कार्य नहीं कर सकने के कारण भिक्षा मांगते हैं वह तीसरी वृत्ति भिक्षा है। यदि मानवीय दृष्टि से मनन करें तो जब तक वृत्ति भिक्षुक लोगों के लिए उचित प्रबन्ध न हो तब तक उन्हें भिक्षा मांगने का अधिकार है। 3
अध्याहार रूप में कहें तो जैन मुनि की भिक्षा का स्वरूप सबसे महान है। वह साधक एवं राष्ट्र दोनों के लिए कल्याणकारी है।
आहार ग्रहण के उद्देश्य
संयम यात्रा का समुचित ढंग से निर्वाह हो सके, चारित्रिक समस्त क्रियाएँ यथाविधि सम्पन्न की जा सके, इसी उद्देश्य से मुनि को आहार करना चाहिए। आहार ग्रहण का मुख्य उद्देश्य संयम धर्म को पुष्ट एवं सबल बनाना है। जैनागम भी यही कहते हैं कि भिक्षाजीवी मुनि संयम जीवन का निर्वाह करने के लिए आहार की गवेषणा करें, किन्तु रसगृद्ध बनकर नहीं | 4
भगवतीसूत्र कहता है कि जो संयम धर्म के पोषण हेतु निरवद्य आहार ग्रहण करता है वह आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के बन्धन को शिथिल कर देता है।