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भिक्षाचर्या की उपयोगिता एवं उसके रहस्य ... 23
ज्ञाताधर्मकथासूत्र में कहा गया है कि श्रमण ज्ञान-दर्शन- चारित्र के परिवहन एवं मोक्ष प्राप्ति के प्रयोजन से ही आहार करते हैं, शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए नहीं । रत्नत्रय रूप धर्म का आद्य साधन शरीर ही है, जिसे भोजन - पानी के द्वारा ही सशक्त रखा जा सकता है । "
उक्त कथन का समर्थन करते हुए रयणसार ग्रन्थ भी कहता है कि श्रमण ज्ञान और संयम की अभिवृद्धि एवं ध्यान और अध्ययन के वांछित लाभ को लक्ष्य में रखते हुए आहार ग्रहण करे, यही मोक्षमार्ग की यथार्थ साधना है। 7 मूलाचार में भी स्पष्ट निर्देश है कि निर्ग्रन्थ मुनि ज्ञान, संयम और ध्यान की अभिवृद्धि के लिए आहार करे। वह आयु, बल, स्वाद और देह पोषण आदि के लिए आहार न करे | 8
तुलना - दिगम्बर परम्परा के मूलाचार में आहार करने के छः कारणों में तीसरा क्रियार्थ नाम का कारण है। उसका अर्थ- षडावश्यक आदि क्रियाओं के पालनार्थ ऐसा किया गया है जबकि श्वेताम्बर परम्परा के स्थानांगसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में तीसरे क्रम पर इरियट्ठाए - ईर्यासमिति के शोधन के लिए ऐसा पाठ है।
मूलाचार में आहार त्याग के छः कारणों में अन्तिम शरीर परित्याग नाम का कारण है 10 जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थों में 'शरीर विच्छेद के लिए' यह पाठ है। अर्थ दृष्टि से दोनों में समानता है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भिक्षाटन की प्रासंगिकता
यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भिक्षाटन का चिंतन किया जाए तो भिक्षा मांगना एक तुच्छ कार्य माना जाता है। जैन परम्परा में मुनि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है और इस मार्ग को राजा से लेकर रंक तक हर व्यक्ति स्वीकार कर सकता है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि उच्च कुलीन घरों से दीक्षित होने वाले साधकों का भिक्षा मांगना कहाँ तक उचित है? यदि आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसकी अत्यधिक प्रासंगिकता सिद्ध होती है।
जैन मुनि आध्यात्मिक उत्कर्ष एवं कषाय दमन के उद्देश्य से चारित्र धर्म अंगीकार करते हैं और इस जीवन को अपनाने के साथ ही अतीत जीवन को पूर्णत: विस्मृत कर देते हैं। साधु मण्डली में सभी मुनियों का स्थान समान होता है, उन्हें Family status के अनुसार स्थान प्राप्त न होकर ज्येष्ठता - लघुता के