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भिक्षा विधि का स्वरूप एवं उसके प्रकार ...13 उपभोक्तावादी संस्कृति ने आहार की श्रेष्ठता को ही क्षत-विक्षत कर दिया है।
इस तरह भिक्षा की शुद्धता का प्रश्न अति जटिल हो गया है जिसके लिए गृहस्थ और मुनि दोनों जिम्मेदार हैं। भिक्षार्थ भ्रमण एवं भिक्षा सेवन करने वाले मुनि की उपमाएँ ___ स्थानांग सूत्र के अनुसार भिक्षाजीवी मुनि घुन (काष्ठ भक्षक कीड़े) के समान चार तरह के होते हैं___ 1. त्वक् + खाद- वृक्ष की ऊपरी छाल को खाने वाला घुन, इसी तरह नीरस, रुक्ष, अन्त-प्रान्त आहार करने वाला साधु।
2. छल्ली+खाद- छाल के भीतरी भाग को खाने वाला घुन, इसी तरह अलेप अर्थात स्वाद रहित आहार करने वाला साधु।
3. काष्ठ + खाद- काष्ठ को खाने वाला घुन, इसी तरह दूध, दही घृतादि से रहित आहार करने वाला साधु।
4. सार + खाद- काष्ट के मध्यवर्ती सार को खाने वाला घुन, इसी तरह दूध, दही, घृतादि से परिपूर्ण आहार करने वाला साधु।। ___ इनमें प्रारम्भ के तीन स्तर के मुनि क्रमश: उत्कृष्टतम, उत्कृष्टतर एवं उत्कृष्ट है, अन्तिम भेद सामान्य है।25
स्थानांग सूत्र में भिक्षाचारी मुनि को मत्स्य की उपमा दी गई है। वे मत्स्य की भाँति चार प्रकार के होते हैं
1. अनुस्रोतचारी- जल प्रवाह के अनुकूल चलने वाले मत्स्य की तरह उपाश्रय के निकटवर्ती गृहों एवं उस गली में स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला साधु अनुस्रोतचारी कहलाता है।
2. प्रतिस्रोतचारी- जल प्रवाह के प्रतिकूल चलने वाले मत्स्य की भाँति वीथी के अन्त से लेकर उपाश्रय पर्यन्त घरों से भिक्षा लेने वाला साधु प्रतिस्रोतचारी कहलाता है।
3. अन्तचारी- जल प्रवाह के किनारे-किनारे चलने वाले मत्स्य की भांति नगर ग्रामादि के अन्त भाग में स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला साधु अन्तचारी कहलाता है। ____ 4. मध्यचारी- जल प्रवाह के मध्य में चलने वाले मत्स्य की तरह नगर स्थित मध्य गृहों से आहार लेने वाला साधु मध्यचारी कहलाता है।