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4... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
एषणा का सामान्य अर्थ है खोज करना, शोध करना, संशोधन करना । एषणा का शास्त्रीय अर्थ है - निर्दोष आहार, पानी आदि की गवेषणा करना । जैन मुनि की आचार संहिता के अनुसार जो वस्तु ग्राह्य एवं विशुद्ध हो उसकी खोज करना अथवा अच्छी तरह निरीक्षण, परीक्षण आदि करके आहारादि प्राप्त करना एषणा कहलाता है। मुनि की साधना के लिए उपयोगी उपकरण आदि भी एषणा पूर्वक ग्रहण करना चाहिए। एषणा के प्रकार
एषणा तीन प्रकार की कही गई है - गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा । 1. गवेषणा- सोलह उद्गम सम्बन्धी एवं सोलह उत्पादना सम्बन्धी ऐसे बत्तीस दोषों को टालकर शुद्ध आहार- पानी की खोज करना गवेषणा है।
2. ग्रहणैषणा - शंकित आदि दस दोषों को टालकर शुद्ध आहार आदि ग्रहण करना ग्रहणैषणा है।
3. ग्रासैषणा - गवेषणा और ग्रहणैषणा द्वारा प्राप्त शुद्ध आहारादि का सेवन करते समय मांडली के पाँच दोषों का त्याग करना ग्रासैषणा है | 10
उक्त तीन प्रकार की एषणा आहार से सम्बन्ध रखती है। यहाँ उपलक्षण से अन्य वस्तुओं का भी ग्रहण करना चाहिए। आहारादि सर्व प्रकार की वस्तुओं के शोधन, ग्रहण और उपभोग करने में संयम पूर्वक प्रवृत्ति करना एषणा समिति है।
इसका सार यह है कि मुनि आहार, उपधि और शय्या सम्बन्धित वस्तुएँ शोधन द्वारा ग्रहण करें, जैसे-तैसे ग्रहण न करें ।
पिण्डैषणा का अर्थ - एषणा के तीनों प्रकारों का समूह वाचक नाम पिण्डैषणा है। पिण्ड-आहार जनित पदार्थों का समूह, एषणा - खोज करना यानी निर्दोष आहार आदि की खोज करना, गवेषणा द्वारा प्राप्त शुद्ध आहार को ग्रहणकरना तथा उसका उपभोग करना पिण्डैषणा कहलाता है।
पिण्ड का अर्थ - जैन मत में 'पिण्ड' शब्द आहार के सम्बन्ध में प्रयुक्त है। मुनियों की आहार विशुद्धि को 'पिण्ड विशुद्धि' कहा गया है। सामान्यत: एक जाति या अनेक जाति की वस्तुओं का एकत्रित किया गया समुदाय पिण्ड कहलाता है। आहार विभिन्न सामग्रियों से निर्मित होता है अतः यहाँ 'पिण्ड' शब्द का प्रयोग सार्थक है। पिण्डनिर्युक्ति में पिण्ड के आठ पर्यायवाची कहे गये हैं। 11