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________________ भिक्षा विधि का स्वरूप एवं उसके प्रकार ...3 यहाँ सामूहिक भिक्षा से तात्पर्य है कि मुनि समभाव की दृष्टि रखते हुए अनेक घरों से भिक्षा प्राप्त करें। एक या दो-तीन घरों से ही भिक्षा ली जाये तो उसमें एषणा शुद्धि रहना कठिन है, इससे साधु की स्वाद लोलुपता भी बढ़ सकती है। अत: इन्द्रियनिग्रह एवं एषणा शुद्धि को लक्ष्य में रखते हुए सभी घरों से भिक्षा ग्रहण करें। उच्च और नीच दोनों प्रकार के घरों से भिक्षा प्राप्त करने का उद्देश्य यह है कि मुनि धनिक, निर्धन, मध्यम सभी घरों से आहार लें। जो घर जाति से उच्च एवं धन से समृद्ध हों उनके यहाँ से ही भिक्षा न लें अपितु जो धन से समृद्ध न हों और जहाँ इच्छित आहार आदि भी न मिलता हो उन गृहों से भी आहार प्राप्त करें। इसी के साथ मार्ग में आ रहे नीच कुलों को छोड़कर या लांघकर उच्च कुलों में भिक्षार्थ न जाएं, इससे समत्व गुण का हास एवं जिनशासन की निन्दा होती है। किन्तु घृणित कार्य करने वाले कुलों में भिक्षार्थ न जाएं। दशवैकालिकचूर्णि के मतानुसार उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोषों से रहित भिक्षा प्राप्त करना अज्ञातउंछ है। 5. मृगचर्या वृत्ति- उत्तराध्ययनसूत्र में साधु की भिक्षाचर्या को मृगचर्या से उपमित किया गया है। यह भी भिक्षाचर्या का एक पर्याय है। जैसे मृग अकेला अनेक स्थानों पर विचरण करते हुए अपनी उदरपूर्ति कर जीवन निर्वाह करता है वैसे ही मुनि गोचरी के लिए अनेक घरों में जाएं। यदि आहार प्राप्त न हो तो किसी की निन्दा नहीं करें और न किसी की अवज्ञा करें। 6. अदीन वृत्ति- दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जैन मुनि अनासक्त भाव पूर्वक आहार प्राप्त करें, भिक्षा न मिले तो खेद न करें और स्वादिष्ट भोजन मिलने पर उसमें मूछित न हों। इस तरह जैन साधु गाय की तरह सभी प्रकार के घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार प्राप्त करें। यदि भिक्षा न मिले तो किसी के प्रति रोष प्रकट न करें और भिक्षा मिलने पर किसी की प्रशंसा न करें। भिक्षाचर्या के अर्थ में एषणा, गवेषणा शब्द भी प्रचलित हैं। एषणा का सामान्य अर्थ जैन धर्म में एषणा शब्द गवेषणा के अर्थ में प्रयुक्त है। निर्दोष वस्त्र-पात्रवसति आदि की खोज करना एषणा कहलाता है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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