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2... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन भिक्षाचर्या के एकार्थवाची
जैन आगमों में भिक्षा वृत्ति के लिए गोचरी, माधुकरी, कापोती वृत्ति, उञ्छवृत्ति, एषणा, पिण्डैषणा आदि शब्दों का भी उल्लेख है। इन एकार्थवाची शब्दों का सामान्य वर्णन इस प्रकार है
___ 1. गोचरी- गो=गाय, चर घूमना, चर्या-विशेष नियम पूर्वक प्रवृत्ति करना अर्थात गाय की तरह घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा प्राप्त करना गोचरचर्या है।
उत्तराध्ययन टीका के अनुसार गाय की भाँति विचरण करते हुए उच्च-नीच कूलों से अल्प मात्रा में निर्दोष भिक्षा प्राप्त करना गोचरचर्या है। इसके लिए गोचराग्र शब्द का भी प्रयोग देखा जाता है। जिस प्रकार गाय चरती हुई यहाँ-वहाँ थोड़ी-थोड़ी घास ही ग्रहण करती है, कहीं से भी सम्पूर्ण घास नहीं खाती है, उसी तरह मुनि भी परिभ्रमण करते हुए गृहस्थों के यहाँ से थोड़ा-थोड़ा भोजन प्राप्त करता है अत: उसकी भिक्षावृत्ति गोचरी कहलाती है।
__ इसी तरह जैसे गाय चारे का अग्रभाग ही खाती है, उसे समूल से नष्ट नहीं करती वैसे ही मुनि भी एक ही घर से पूरा आहार नहीं लेता, अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करता है। इसलिए उसे गोचराग्र भी कहा जाता है।
2. माधुकरी वृत्ति- मधुकर शब्द भ्रमर का पर्यायवाची है। मधुकर की भाँति जीवन का निर्वाह करना माधुकरी वृत्ति कहलाता है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता हुआ किसी भी पुष्प को म्लान नहीं करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है। उसी प्रकार श्रमण नाना घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेता हुआ किसी एक गृहस्थ पर भारभूत न होकर स्वयं की उदरपूर्ति कर लेता है। इसका तात्पर्य है कि मुनि प्रत्येक घर से उतना ही आहार लेता है कि गृहस्थ को अपने लिए दुबारा भोजन बनाना न पड़े।
3. कापोती वृत्ति- कापोती वृत्ति का अर्थ है- कबूतर की तरह आजीविका का निर्वहन करना। जिस प्रकार कपोत धान्य कण आदि को चुगते समय नित्य सशंक रहता है, उसी प्रकार भिक्षाचरी मुनि एषणा आदि दोषों के प्रति सशंक रहे अर्थात गवेषणा करते हुए भी किसी प्रकार का दोष न लग जाए इस हेतु पूर्ण सचेत रहे।
4. उज्छ वृत्ति- उञ्छ का अर्थ भिक्षा है। मुनि, जीवन यापन के लिए सभी तरह के घरों से और अपरिचित कुलों से सामूहिक भिक्षा प्राप्त करें।