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________________ अध्याय-1 भिक्षा विधि का स्वरूप एवं उसके प्रकार भिक्षाचर्या, मुनि जीवन का एक आवश्यक अंग है। जैन श्रमण गृहस्थ से आहार आदि की याचना कर अपनी उदर पूर्ति करता है। यह याचना विधि भिक्षा वृत्ति कहलाती है। भगवान महावीर की परम्परा के साधु-साध्वी अपने जीवन का निर्वाह भिक्षा वृत्ति के माध्यम से ही करते हैं। इसीलिए उन्हें 'भिक्षु' कहा गया है। श्रमण का एक अपर नाम भिक्ष भी है। दशवकालिक नियुक्ति में 'भिक्ष' का अर्थ बतलाते हुए कहा गया है कि जो आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करने में संलग्न है, वह भिक्षु है तथा जिसकी आजीविका का साधन केवल भिक्षा ही है, वह भिक्षु है। उक्त परिभाषा में दूसरा अर्थ 'याचक' से सम्बन्धित है। यद्यपि जैन मनि भी याचना से उदर पूर्ति करता है किन्तु उसके द्वारा भिक्षा की प्राप्ति केवल जीवन निर्वाह एवं संयम साधना के लिए की जाती है। इस प्रकार जैन मुनि आहार, वस्त्र, पात्र, वसति आदि आवश्यक वस्तुएँ याचना से ही प्राप्त करता है। इसी याचना विधि को भिक्षा विधि कहते हैं। भिक्षाचर्या के विभिन्न अर्थ भिक्षा विधि का प्रथम चरण भिक्षाचर्या है। भिक्षाचर्या का सीधा सा अर्थ हैभिक्षा के लिए गमन या परिभ्रमण करना। 'भिक्षा' शब्द में याचनार्थक भिक्षु धातु और स्त्रीवाचक अ + टाप् प्रत्यय जुड़े हुए हैं तथा 'चर्या' शब्द में गत्यार्थक चर् धातु और कृदन्त यत् + टाप् प्रत्यय तथा स्त्रीवाचक का संयोग है। इस प्रकार भिक्षा = याचना करना, चर्या = गमन करना अर्थात आहार प्राप्ति हेतु एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करना भिक्षाचर्या है। दूसरे अर्थ के अनुसार गोचरचर्या एवं एषणा सम्बन्धी नियमों तथा विविध अभिग्रहों के द्वारा भिक्षा वृत्ति करना भिक्षाचर्या है। तीसरे अर्थ के अनुसार एषणा सम्बन्धी नियमों एवं विविध अभिग्रहों का पालन करते हुए भिक्षा वृत्ति करना भिक्षाचर्या है। इसे गोचरचर्या भी कहते हैं।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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