SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आहार सम्बन्धी 47 दोषों की कथाएँ ...243 दिया। उपकारी गुरु को पीठ न हो इन भावों से वह पैरों को पीछे करता रहा। 'किस प्रकार गुरु के चरण-कमलों को प्राप्त करूंगा' इस प्रकार अनेकों विकल्पों के साथ वसति से निकलकर वह विश्वकर्मा के भवन में आ गया। __नट कन्याओं ने आदरपूर्वक मुनि के शरीर को अनिमिष दृष्टि से देखा। उन्होंने अनुभव किया कि मुनि का रूप आश्चर्यजनक है। शरद चन्द्रमा के समान मनोहर इसका मुख मण्डल है। कमलदल की भांति दोनों आँखें हैं, नुकीली नाक तथा कुंद के फूलों की भांति श्वेत और स्निग्ध दाँतों की पंक्ति है। कपाट की भांति विशाल और मांसल वक्षस्थल है। सिंह की भांति कटि प्रदेश तथा कर्म की भांति चरण युगल हैं। विश्वकर्मा ने आदर सहित मुनि को कहा- 'अहो भाग! ये मेरी दोनों कन्याएँ आपको समर्पित हैं। आप इन्हें स्वीकार करें।' नट ने दोनों कन्याओं के साथ आषाढ़भूति का विवाह कर दिया। विश्वकर्मा ने अपनी दोनों कन्याओं को कहा- 'जो व्यक्ति मन की ऐसी स्थिति को प्राप्त करके भी गुरु-चरणों की स्मृति करता है, वह नियम से उत्तम प्रकृति वाला होता है अत: इसके चित्त को आकृष्ट करने के लिए तुम्हें सदा मद्यपान से रहित रहना है अन्यथा यह तुमसे विरक्त हो जाएगा।' आषाढ़भूति सकल कलाओं के ज्ञान में कुशल तथा नाना प्रकार के विज्ञानातिशय से युक्त था अतः सभी नटों में अग्रणी हो गया। वह सर्वत्र प्रभूत धन तथा वस्त्र-आभरण आदि प्राप्त करता था। एक बार राजा ने नटों को बुलाया और आदेश दिया कि आज बिना महिलाओं का नाटक करना है। सभी नट अपनी युवतियों को घर पर छोड़कर राजकुल में गए। आषाढ़भूति की पत्नियों ने सोचा कि हमारा पति राजकुल में गया है अत: सारी रात वहीं बीत जाएगी। तो क्यों न आज हम इच्छानुसार मदिरा-पान करें, उन्होंने वैसा ही किया परन्तु उन्मत्तता के कारण वस्त्र रहित होकर घर की दूसरी मंजिल पर सो गई। इधर राजकुल में किसी दूसरे राष्ट्र का दूत आने के कारण राजा का चित्त विक्षिप्त हो गया।' 'यह नाटक का समय नहीं है' यह सोचकर राजा ने सारे नटों को वापस लौटा दिया। जब आषाढ़भूति ने दूसरी मंजिल में पहुँचकर अपनी दोनों पत्नियों को वस्त्र रहित वीभत्स रूप में देखा तो उसने चिन्तन कियाअहो! मेरी कैसी मूढ़ता है? विवेक वैकल्य है, जो मैंने इस प्रकार की अशुचि
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy