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242... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन का रूप बनाकर नट के घर में प्रवेश किया। तीसरा मोदक प्राप्त करके मुनि ने सोचा कि यह सामुदायिक मुनि के लिए होगा अत: इस बार कुष्ठी का रूप धारण करके घर में प्रवेश किया। मुनि को चौथा मोदक प्राप्त हो गया। माले के ऊपर बैठे विश्वकर्मा ने इतने रूपों का परिवर्तन करते हुए देखा। उसने सोचा कि यदि यह हमारे बीच रहे तो अच्छा रहेगा लेकिन इसको किस विधि से आकृष्ट करना चाहिए, यह सोचते हुए नट के मन में एक युक्ति उत्पन्न हुई। उसने सोचा- मुनि के मन को पुत्रियों के द्वारा विचलित करके ही संसार की और खींचा जा सकता है।
नट माले से उतरकर मुनि के पास गया और आदरपूर्वक पात्र भरकर मोदकों का दान दिया। नट ने कहा-'मैं आपसे प्रतिदिन हमारे घर भोजन-पानी ग्रहण करने का अनुग्रह करता हूँ।' वह अपने उपाश्रय में चला गया। विश्वकर्मा ने अपने परिवार के समक्ष आषाढ़भूति की रूप परिवर्तन विद्या के बारे में बताया तथा अपनी दोनों पुत्रियों से कहा कि तुमको स्नेहयुक्त दृष्टि से दान करते हुए मुनि को अपनी ओर आकृष्ट करना है। मुनि आषाढ़भूति प्रतिदिन भिक्षार्थ आने लगे। दोनों पत्रियों ने वैसा ही किया। मुनि को अपनी ओर अनुरक्त देखकर एक बार एकान्त में उन्होंने मुनि से कहा- 'हमारा मन आपके प्रति अत्यधिक आकृष्ट है अत: हमारे साथ विवाह करके भोगों का सेवन करो।' ___यह सुनकर मुनि आषाढ़भूति के चारित्रमोहनीय कर्म का उदय हुआ, जिससे गुरु का उपदेश हृदय से निकल गया। कुल और जाति का अभिमान समाप्त हो गया। मुनि ने दोनों नट-कन्याओं को कहा- 'ऐसा ही होगा, लेकिन पहले मैं गुरु चरणों में मुनि वेश छोड़कर आऊंगा।' आषाढ़भूति मुनि गुरु चरणों में प्रणत हुए और अपने अभिप्राय को प्रकट कर दिया। गुरु ने प्रेरणा देते हुए कहा- 'वत्स! तुम जैसे विवेकी, शास्त्रज्ञ व्यक्ति के लिए दोनों लोक में निंदनीय यह आचरण उचित नहीं है। दीर्घकाल तक शील का पालन करके अब विषयों में रमण मत करो। क्या समुद्र को बाहों से तैरने वाला व्यक्ति गोपद जितने स्थान में डूब सकता है? आषाढ़भूति ने कहा- 'आपका कथन सत्य है लेकिन प्रतिकूल कर्मों के उदय से प्रतिपक्ष भावना रूप कवच के दुर्बल होने पर, कामदेव का आघात होने से तथा मृगनयनी रमणी की कटाक्ष से मेरा हृदय पूर्ण रूपेण जर्जर हो गया है।' इस तरह कहकर उसने गुरु-चरणों में रजोहरण छोड़