SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आहार सम्बन्धी 47 दोषों की कथाएँ ...241 के द्वार पर पहुँचने पर क्षुल्लक ने कहा-'मैं पहले भी तुम्हारे घर आया था लेकिन तुम्हारी भार्या ने कहा कि मैं तुमको कुछ भी नहीं दूंगी इसलिए तुमको जो उचित लगे, वह करो।' क्षुल्लक के ऐसा कहने पर विष्णुमित्र बोला- 'यदि ऐसी बात है तो तुम कुछ समय के लिए घर के बाहर रुको, मैं स्वयं तुमको बुला लूंगा। . विष्णुमित्र घर में प्रविष्ट हुआ। उसने अपनी पत्नी से पूछा-'क्या सेवई पका ली?' उसको घी और गुड़ से युक्त कर दिया? पत्नी ने कहा- 'मैंने सारा कार्य पूर्ण कर दिया।' विष्णुमित्र ने गुड़ को देखकर कहा- 'यह गुड़ थोड़ा है, इतना गुड़ पर्याप्त नहीं होगा, अत: माले पर चढ़कर अधिक गुड़ लेकर आओ, जिससे मैं ब्राह्मणों को भोजन करवाऊंगा।' पति के वचन सुनकर वह नि:श्रेणी के माध्यम से माले पर चढ़ी। चढ़ते ही विष्णुमित्र ने निःश्रेणी वहाँ से हटा दी। विष्णुमित्र ने क्षुल्लक को बुलाकर पात्र भरकर सेवई का दान दिया। उसके बाद उसने घी और गुड़ आदि देना प्रारंभ किया। इसी बीच गुड़ लेकर सुलोचना माले से उतरने के लिए तत्पर हुई लेकिन वहाँ निःश्रेणी को नहीं देखा। उसने आश्चर्यचकित होकर क्षुल्लक को घृत, गुड़ से युक्त सेवई देते हुए देखकर सोचा कि मैं इस क्षुल्लक से पराजित हो गई अत: उसने ऊपर खड़े-खड़े ही चिल्लाते हुए कहा- 'इस क्षुल्लक को दान मत दो।' क्षुल्लक ने भी उसकी ओर देखकर अपनी नाक पर अंगुली रखकर यह प्रदर्शित किया कि मैंने तुम्हारे नासापुट में प्रस्रवण कर दिया है। क्षुल्लक घृत और गुड़ से युक्त सेवई का पात्र लेकर अपने उपाश्रय में चला गया।19 17. मायापिण्ड : आषाढ़भूति कथानक राजगृह नगरी में सिंहस्थ नामक राजा राज्य करता था। वहाँ विश्वकर्मा नामक नट की दो पुत्रियाँ थीं। वे अत्यन्त सुरूप एवं सुघड़ देहयष्टि वाली थीं। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धर्मरुचि आचार्य वहाँ आए। उनके एक अंत:वासी शिष्य का नाम आषाढ़भूति था। वे भिक्षार्थ घूमते हुए विश्वकर्मा नट के घर में प्रविष्ट हुए। वहाँ उसने विशिष्ट मोदक प्राप्त किया। नट के गृह द्वार से बाहर निकल आषाढ़भूति मुनि ने सोचा- 'यह मोदक तो आचार्य के लिए होगा अत: रूप-परिवर्तन करके अपने लिए भी एक मोदक प्राप्त करूंगा।' उसने आँख से काने मुनि का रूप बनाया और दूसरा मोदक प्राप्त किया। बाहर निकलकर पुन: चिन्तन किया- 'यह उपाध्याय के लिए होगा' अत: पुन: कुब्ज
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy