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________________ 236... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन किया- 'आचार्य ने भाव रूप से मास कल्प का पालन नहीं किया है, अत: शिथिल आचार वालों के साथ नहीं रहना चाहिए। यह सोचकर वह वसति के बाहर मण्डप में रुक गया। उसने आचार्य को वंदना तथा कुशलक्षेम की पृच्छा की। दत्त ने सिंह द्वारा प्रदत्त संदेश आचार्य को बताया। भिक्षा वेला में वह आचार्य के साथ भिक्षार्थ गया। सामान्य घरों से भिक्षा ग्रहण करके उसका मुख म्लान हो गया। तब आचार्य ने उसके भावों को जानकर किसी धनाढ्य सेठ के घर प्रवेश किया। वहाँ व्यन्तर अधिष्ठित होने के कारण एक बालक सदैव रोता था। आचार्य ने एक चिमटी बजाकर कहा- 'वत्स! रोओ मत।' आचार्य के ऐसा कहने पर उनके प्रभाव से वह पूतना व्यन्तरी अट्टहास करती हुई वहाँ से अन्यत्र चली गई। बालक का रोना बंद हो गया। गृहस्वामी इस बात से अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने साधु को भिक्षा में अनेक मोदक दिए। दत्त मोदक को ग्रहण कर प्रसन्न मन से अपनी वसति में आ गया। ___ आचार्य अपने शरीर के प्रति निस्पृह थे अत: आगम विधि के अनुसार अंत-प्रान्त कुलों में भिक्षा करके उपाश्रय में लौटे। प्रतिक्रमण वेला में आचार्य ने शिष्य दत्त से कहा-'वत्स! धात्री पिण्ड और चिकित्सा पिण्ड की आलोचना करो।' दत्त बोला-'मैं आपके साथ ही भिक्षार्थ गया अत: मुझे धात्री पिण्ड परिभोग का दोष कैसे लगा?' आचार्य ने कहा- 'लघु बालक को क्रीड़ा कराने से क्रीड़न धात्री पिण्ड तथा चिमटी बजाने से बालक पूतना से मुक्त हुआ, यह चिकित्सा पिण्ड हो गया। तब द्वेष युक्त मन से दत्त ने चिन्तन किया-'आचार्य स्वयं तो भावत: मासकल्प नहीं करते और प्रतिदिन ऐसा पिण्ड लेते हैं। मैंने तो एक ही दिन ऐसा आहार लिया, फिर भी मुझे आलोचना करने की बात कह रहे हैं।' इस प्रकार चिन्तन करके प्रद्वेष पूर्वक वसति से बाहर चला गया। आचार्य के प्रति द्वेष देखकर उनके गुणों के प्रति आकृष्ट एक देवता ने दत्त को शिक्षा देने के लिए वसति में अंधकार कर दिया और तेज वायु के साथ वर्षा की विकुर्वणा कर दी। भयभीत होकर उसने आचार्य से कहा- “मैं कहाँ जाऊं?' तब निर्मल हृदय से आचार्य ने कहा- 'वत्स! यहाँ वसति में आ जाओ।' दत्त बोला- 'अंधकार के कारण मुझे द्वार दिखाई नहीं दे रहा है।' आचार्य ने अनुकम्पा से श्लेष्म लगाकर अंगुली को ऊपर किया। वह दीपशिखा की भांति प्रज्वलित हो गई। तब उस दुष्ट चित्त वाले दत्त ने चिन्तन किया
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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