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________________ 226... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन के निर्मूलन के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। राजकुमार ने चिन्तन करते हुए सोचा कि मैं भी महान व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण मार्ग का अनुगमन करूंगा। इस प्रकार उस मोदकप्रिय राजकमार के मन में वैराग्य का उद्गम होने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उद्गम हो गया और उसे कैवल्य की प्राप्ति हो गई। 2. आधाकर्म : पानक दृष्टांत किसी गाँव में सारे कुएँ खारे पानी के थे। उस लवण प्रधान क्षेत्र में वसति निरीक्षण के लिए कुछ साधु आए। उन्होंने पूरे क्षेत्र की प्रतिलेखना की। तत्रस्थ निवासी श्रावकों के द्वारा सादर अनुरोध करने पर भी साधु वहाँ नहीं रुके। श्रावकों ने उनमें से किसी सरल साधु को वहाँ न रुकने का कारण पूछा। उसने सरलता से यथार्थ बात बताते हुए कहा- 'इस क्षेत्र में और सब गुण है' केवल खारा पानी है इसलिए साधु यहाँ नहीं रुकते। साधुओं के जाने पर श्रावक ने मीठे पानी का कूप खुदवाया। उसको खुदवाकर लोक प्रवृत्ति जनित पाप के भय से कूप का मुख फलक से तब तक ढंक दिया, जब तक कोई अन्य साधु वहाँ न आए। साधुओं के आने पर उसने सोचा कि केवल मेरे घर मीठा पानी रहेगा तो साधुओं को आधाकर्म की आशंका हो जाएगी, अत: उसने सब घरों में मीठा पानी भेज दिया। साधुओं ने बालकों के मुख से संलाप सुनकर जान लिया कि यह पानी आधाकर्मिक है। उन्होंने उस गाँव को छोड़ दिया। 3. द्रव्यपूति : गोबर दृष्टांत समिल्ल नामक नगर के बाहर उद्यान में मणिभद्र यक्ष था। एक दिन उस नगर में शीतलक नामक अशिव उत्पन्न हो गया। तब कुछ लोगों ने सोचा कि यदि इस अशिव से हम बच जायेंगे तो एक वर्ष तक अष्टमी आदि पर्व-तिथियों में उद्यापनिका करेंगे। नगर के सभी लोग उस अशिव से निस्तीर्ण हो गए। उन लोगों के मन में निश्चय हो गया कि यह सब यक्ष का चमत्कार है। तब देवशर्मा नामक व्यक्ति को वैतनिक रूप से पुजारी के रूप में नियुक्त करते हुए लोगों ने कहा- 'तुमको एक वर्ष तक अष्टमी आदि दिनों में प्रात:काल यक्ष-सभा को गोबर से लीपना है। उस स्वच्छ एवं पवित्र स्थान पर हम लोग आकर उद्यापनिका करेंगे।' देवशर्मा ने यह बात स्वीकार कर ली। एक दिन उद्यापनिका के लिए सभा को लीपने हेतु वह सूर्योदय से पूर्व किसी कुटुम्बी के यहाँ गोबर लेने गया। वहाँ रात्रि में किसी कर्मचारी को मण्डक, वल्ल
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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