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आहार सम्बन्धी 47 दोषों की कथाएँ
आहारचर्या सम्बन्धी दोषों की चर्चा हमें अनेक स्थानों पर प्राप्त होती है। परंतु लोकव्यवहार में कथानुयोग का विशेष महत्त्व रहा है। इसके माध्यम से किसी भी विषय का सुगमतापूर्वक प्रतिपादन हो सकता है। इसी कारण चार प्रकार के अनुयोग में कथानुयोग को स्थान प्राप्त हुआ। इसी पक्ष को ध्यान में रखकर आहार सम्बन्धी दोषों को कथाओं के माध्यम से बताया जा रहा है। 1. उद्गम लड्डुकप्रियकुमार कथानक
श्रीस्थलक नामक नगर के राजा का नाम भानु था। उसकी पटरानी का नाम रुक्मिणी और पुत्र का नाम सुरूप था। पाँच धात्रियों के द्वारा राजकुमार का सुखपूर्वक पालन-पोषण हो रहा था। नागकुमार देवों की भाँति अनेक स्वजनों को आनंद देता हुआ कौमार्य अवस्था को प्राप्त हुआ। शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भांति अनेक कलाओं से वृद्धिंगत होता हुआ, सुन्दर स्त्रियों के मन को प्रसन्न करता हुआ वह कुमार देखते ही देखते यौवन अवस्था को भी प्राप्त हो गया । उसे मोदक बहुत प्रिय थे अतः लोक में ' मोदकप्रिय' नाम से प्रसिद्ध हो गया।
एक दिन बसन्त ऋतु की प्रातः वेला में वह कुमार शयनकक्ष से उठकर सभामण्डप में गया। वहाँ सुंदर नृत्य आदि का आयोजन था। भोजन वेला आने पर उसकी माँ ने उसे मोदक भेजे। उसने परिजनों के साथ जी भर मोदक खाए । रात्रि में गीत-नृत्य आदि के कारण जागरण होने से वे मोदक पचे नहीं। अजीर्ण के प्रभाव से उसकी अपान वायु दूषित हो गई। वह दुर्गन्ध उसके नाक तक पहुँची । कुमार ने सोचा कि ये मोदक घृत, गुड़ और आटे से बने हैं। ये तीनों पदार्थ शुचि हैं लेकिन शरीर के सम्पर्क से ये अशुचि रूप में परिणत हो गए। कपूर आदि सुरभित पदार्थ भी शरीर के सम्पर्क से क्षण मात्र में दुर्गन्ध युक्त हो जाते हैं, इस प्रकार के अशुचि रूप तथा अनेक दोषों से युक्त इस शरीर के लिए जो व्यक्ति पाप कर्म का सेवन करते हैं, वे सचेतन होते हुए भी मोह निद्रा के कारण अचेतन जैसे ही होते हैं। वही विद्वत्ता प्रशंसनीय होती है जिसके माध्यम से हेय और उपादेय का चिन्तन किया जाए। वे व्यक्ति धन्य हैं, जो शरीर से निस्पृह होकर सम्यक् शास्त्र के अभ्यास से ज्ञानामृत के सागर में निमज्जन करते रहते हैं, शत्रु और मित्र के प्रति सम रहते हैं, परीषहों को जीतते हैं और कर्मों