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________________ 224... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन जिस प्रकार गाय थोड़ा-थोड़ा घास चरती हुई खेत को हानि पहुँचाए बिना अपना उदर निर्वाह कर लेती है उसी तरह साधु भी नाना घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करके गृहस्थों पर भार नहीं बनता और सहजतया अपना निर्वाह भी कर लेता है। साधुओं की इस वृत्ति को गोचरी या भिक्षाचरी कहा गया है। वस्तुतः माधुकरी वृत्ति ही वह निरवद्य प्रवृत्ति है जिससे संयम धर्म का निर्दोष परिपालन होने के साथ-साथ इस देह की धारणा या रक्षा भी हो जाती है। __ जैन मुनि उदर पोषक नहीं होता। वह न खाने के लिए खाता है और न स्वाद के लिए खाता है। उसके आहार ग्रहण का उद्देश्य होता है और आहार त्याग का भी कारण होता है। __ आहार ग्रहण के छह कारण बताये गये हैं- 1. क्षुधा वेदना की शान्ति के लिए 2. सेवा करने के लिए 3. ईर्या समिति का पालन करने के लिए 4. संयम के अनुष्ठान के लिए 5. प्राणों को टिकाए रखने के लिए और 6. धर्म चिन्तन के लिए आहार करना चाहिए। __ निम्न कारणों के उपस्थित होने पर मुनि को आहार का परित्याग करना चाहिए 1. रोग आने पर 2. उपसर्ग आने पर 3. भूख शान्त होने पर 4. ब्रह्मचर्य रक्षार्थ 5. प्राणिदयार्थ 6. शरीर व्युत्सर्गार्थ। उक्त आगमिक उद्धरणों से ध्वनित होता है कि मुनि का आहार ग्रहण भी संयम के लिए है और आहार विसर्जन भी संयम के लिए होता है। उसका आहार करना भी संयम का उपकारक बनता है और आहार त्याग भी संयम का सहायक होता है।
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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