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अध्याय-7
उपसंहार
जैन श्रमण अहिंसा का मूर्तिमान आदर्श है। संसार के समस्त स्थावर और त्रस, स्थूल और सूक्ष्म जीवों के लिए मुनि जीवन हितंकर एवं क्षेमंकर होता है। वह सर्वविरति चारित्र स्वीकार करते समय यह प्रतिज्ञा करता है कि त्रस जीव हो या स्थावर, सूक्ष्म जीव हो या बादर, किसी के प्राण का हनन न स्वयं करूंगा, न करवाऊंगा और न हनन करने वालों का अनुमोदन करूँगा। इसी के साथ भूतकाल में किए गए प्राणातिपात के पाप से विरत होता है और भविष्य कालिक समस्त प्राणातिपात (हिंसा) का त्रिकरण-त्रियोग से प्रत्याख्यान करता है। श्रमण इस महान प्रतिज्ञा का यावज्जीवन परिपालन करते हुए अनवरत मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्त रहता है।
यहाँ प्रश्न होता है अहिंसा प्रधान पंचयाम का आराधक मुनि स्वयं की देह यात्रा का निर्वहन किस तरह करता है? क्योंकि जब तक शरीर है तब तक उसका संपोषण आवश्यक है। वहीं लोक प्रवाह के विपरीत श्रमण पाक क्रिया का सर्वथा त्यागी होता है, क्रय-विक्रय का भी परित्यागी होता है और अपने पास एक कौड़ी तक नहीं रखता। इस स्थिति में उनकी देह-यात्रा कैसे चलती है? वह समस्त सावध (पापमय) प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यानी (त्यागी) भी होता है, तो ऐसी कौन सी असावध वृत्ति है जिसके द्वारा श्रमण की संयम यात्रा निर्दोष रूप से प्रवर्तित रहे और उसका देह भी साधना योग्य रहे? ___ सर्वज्ञ पुरुषों ने इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है जिस प्रकार भ्रमर फूलों में से थोड़ा-थोड़ा रसपान करता है जिससे न तो फूलों को पीड़ा होती है और उसकी तप्ति भी हो जाती है उसी प्रकार साधु भी गृहस्थों द्वारा स्वयं एवं कुटुम्बिजनों के लिए तैयार किये गये भोजन में से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे, जिससे गृहस्थों को किसी तरह की तकलीफ न हो और साधु के देह की परिपालना भी हो जाए, इसे माधुकरी वृत्ति कहते हैं। यह भिक्षाचर्या का श्रेष्ठ प्रकार है।