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192... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
पश्चात्कर्म सम्बन्धी आहार लिया हो, पुरः कर्म सम्बन्धी आहार लिया हो, अदृश्य वस्तु ली हो, सचित्त वस्तु ली हो, गिरते बिखरते हुए दिया जाने वाला आहार लिया हो, परठने योग्य कालातिक्रान्त ( अयोग्य) वस्तु ग्रहण की हो, उत्तम वस्तु की याचना की हो, सोलह उद्गम सम्बन्धी आहार लिया हो, धात्री आदि सोलह उत्पादना सम्बन्धी आहार ग्रहण किया हो, शंकित आदि दस ग्रहणैषणा सम्बन्धी आहार ग्रहण किया हो, अशुद्ध आहार का सेवन किया हो अथवा विस्मृति से ग्रहण किये गए अशुद्ध आहार का परित्याग न किया हो तो तज्जन्य मेरे समस्त पाप मिथ्या हो ।
• इस सूत्रपाठ का चिन्तन करने के पश्चात तस्सउत्तरी एवं अन्नत्थसूत्र कहकर कायोत्सर्ग में निम्न गाथा का चिन्तन करें
अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया | मुक्ख साहण हेउस्स, साहु देहस्स धारणा । ।
• फिर ' णमो अरिहंताणं' बोलकर कायोत्सर्ग पूर्ण करें और प्रकट में लोगस्स सूत्र बोलें। • तत्पश्चात मंडली स्थान की ऊर्ध्व - अधो- तिर्यक् इस तरह तीन दिशाओं का प्रमार्जन कर पात्र को योग्य स्थान पर रखें। • सुविधिपूर्वक प्राप्त आहार गुरु को दिखायें। • फिर देववन्दन करें। • उसके बाद मुहूर्त्त भर स्वाध्याय करें। आचार्य जिनप्रभसूरि एवं परवर्ती आचार्यों के मतानुसार दशवैकालिक सूत्र के प्रारम्भ की सतरह गाथाओं का चिन्तन अवश्य करना चाहिए। • फिर दीक्षा पर्याय के क्रम से सभी साधुओं को आहार करने हेतु निमन्त्रित करें। • उसके पश्चात भोजन मंडली में उपस्थित होकर प्रत्याख्यान पूर्ण करने के लिए मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करें। • फिर रजोहरण द्वारा पाँव और भोजन स्थान की प्रमार्जन कर आसन पर बैठ जायें। • तदनन्तर अनासक्त भाव से एवं सुरसुर या चव-चव की आवाज न करते हुए खाद्य पदार्थों को ग्रहण करें। 47
श्रमण संघीय साध्वी कुशलकंवरजी द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार स्थानकवासी-तेरापंथी परम्परा में भिक्षाचर्या हेतु प्रस्थान करने से पूर्व इस तरह की कोई विधि नहीं की जाती है। सामान्यतः गुर्वानुमति पूर्वक भिक्षाटन करते हुए शास्त्रोक्त निर्देशों का यथाशक्ति पालन करते हैं तथा आहार ले आने के पश्चात ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करते हैं। इसी के साथ ' गोचरचर्यासूत्र' का अर्थ चिन्तन करते हैं। फिर दो बार 'चउवीसत्थय विधि' करते हैं। इसके पश्चात