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भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियाँ ...191 • सर्वप्रथम गुरु के समक्ष आदेश-निर्देश पूर्वक उपयोग विधि करें। • फिर 'आवस्सही' शब्द कहते हुए वसति से प्रस्थान करें। • फिर भिक्षाचरी मुनि यथाशक्ति अभिग्रह आदि धारण करते हुए आहार की गवेषणा करें। • आहार लेने के बाद पुन: गाँव के अन्दर प्रवेश करते हुए या उपाश्रय के बाहर पाँव की प्रमार्जना करें। . फिर 'निसीहि' शब्द को तीन बार बोलते हुए और 'नमो खमासमणाणं गोयमाईणं महामुणिणं' इतना कहते हुए वसति में प्रवेश करें। • फिर गुरु के सामने खड़े होकर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें। इस प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग में भिक्षाचर्या करते हुए लगने वाले दोषों का स्मरण कर उन्हें याद रखें। • फिर स्मृतिगत दोषों का गुरु के सामने निवेदन करें। . उसके बाद स्मृतिगत आलोचना के अतिरिक्त भी कोई दोष आलोचना किये बिना रह गया हो या किसी दोष की सम्यक् आलोचना न की हो तो उसकी विशुद्धि निमित्त 'गोचरचर्या सूत्र' का भाव पूर्ण चिन्तन करें। यद्यपि आगम पाठ में 'गोचरचर्या सूत्र' का उल्लेख नहीं है किन्तु जिनप्रभसूरि रचित विधिमार्गप्रपा में इस सूत्रपाठ का स्पष्ट निर्देश है तथा यह पाठांश वर्तमान परम्परा में भी बोला जाता है। वह मूल पाठ निम्न है___'पडिक्कमामि गोअरचरियाए भिक्खायरियाए उग्घाडकवाडउग्घाडणयाए साणा-वच्छा-दारा संघट्टणाए, मंडी-पाहुडियाए, बलिपाहुडियाए, ठवणा-पाहुडियाए, संकिए, सहस्सागारे, अणेसणाए, णाणेसणाए, पाणभोयणाए, बीयभोयणाए, हरियभोयणाए, पच्छाकम्मियाए, पुरेकम्मियाए, अदिट्ठहडाए, दग-संसट्ठ-हडाए,रयसंसट्ठ-हडाए, पारिसाडणियाए, पारिट्ठावणियाए ओहासण-भिक्खाए, जं उग्गमेणं, उप्पायणेसणाए, अपरिसुद्धं, परिग्गहियं, परिभुत्तं वा जं न परिट्ठवियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं।' ___अर्थ- मैं गोचरचर्या रूप भिक्षाचर्या में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण करने की इच्छा करता हूँ। यदि भिक्षाचर्या करते हुए अर्ध खुले किवाड़ों को खोला हो, कुत्ते-बछड़े-बच्चों का संघट्टा हुआ हो, अग्रपिण्ड-बलिकर्म-स्थापना सम्बन्धी भिक्षा ग्रहण की हो, शंकित आहार लिया हो, शीघ्रता में आहार लिया हो, बिना एषणा (छान-बीन) के आहार लिया हो, कोई जीव पड़ा हुआ आहार लिया हो, बीज युक्त आहार लिया हो, सचित्त वनस्पति युक्त आहार लिया हो,