________________
190... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
भिक्षाटक मुनि ने कदाच अप्रासुक और अनैषणीय आहार ग्रहण कर लिया हो या आचार्य आदि के निमित्त लाया गया भोजन शेष बच गया हो तो परिष्ठापन हेतु गुरु की अनुज्ञा प्राप्त करें।
फिर अशुद्ध आहार को लेकर एकांत-अचित्त स्थान पर जाएं। वहाँ उस आहार का विवेक पूर्वक विशोधन (पृथक्करण) करें जितना शुद्ध अंश हो उतना खा पी लें। जिस आहार का विवेक और विशोधन करना शक्य न हो, उसे दग्ध भूमि, तुष के ढेर, उपल (पत्थर) अथवा राख के ढेर या इसी प्रकार की अन्य अचित्त भूमि का प्रतिलेखन करके एवं तीन बार 'वोसिरे' शब्द का उच्चारण करते हुए वहाँ विसर्जित कर दें।
इसी प्रकार विद्या से अभिमंत्रित, योग चूर्ण मिश्रित अथवा विष मिश्रित भिक्षा आ जाये तो उसे राख में मिलाकर एवं उसके तीन पुंज करके एकान्त अचित्त स्थान में परिष्ठापित करें।43
यदि भोजन करते हुए मुनि के आहार में गुठली, कांटा, तिनका, लकड़ी का टुकड़ा, कंकर या इसी प्रकार की कोई दूसरी वस्तु निकल जाये तो उसे उठाकर फेंकें नहीं, अपितु अचित्त भूमि का निरीक्षण कर यतना पूर्वक परिष्ठापित करें। तत्पश्चात वसति में आकर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें।44
कदाचित मुनि के द्वारा सचित्त जल ग्रहण कर लिया गया हो तो उसे तत्काल दाता के जल पात्र में डाल दें, वैसा न हो सके तो एकांत स्निग्ध भूमि में जाकर उस पानी का परिष्ठापन करें। फिर पात्र को इस तरह उल्टा रखें कि वह स्वतः सूख जाये। सचित्त जल स्पर्शी पात्र को पौंछना या साफ करना मुनि के लिए निषिद्ध है।45 __यदि अनिच्छा या असावधानी से बहुत खट्टा, दुर्गन्ध युक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ ऐसा जल ले लिया गया हो तो उसे न स्वयं पीए और न दूसरे साधुओं को दे अपितु एकान्त-अचित्त भूमि में जाकर उसका परित्याग करें।46 __इस तरह प्रकारान्तर से भी सचित्त आदि या अशुद्ध आदि वस्तु का ग्रहण हो जाये तो उन्हें एकान्त अचित्त भूमि में जाकर परिष्ठापित करें। प्रचलित परम्पराओं में भिक्षाचर्या विधि
मूर्तिपूजक सभी परम्पराओं में भिक्षाचर्या विधि लगभग समान है। वर्तमान परम्परा में भिक्षाचर्या की निम्न विधि प्रचलित है