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भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियाँ ...189
इसमें पात्र धोने का क्रम बताते हुए यह भी कहा गया है कि गुरु महाराज का पात्र सबसे पहले अलग से धोया जाये। फिर शेष साधुओं के पात्रों में जो यथाकृत पात्र हैं उन्हें पहले धोयें, उसके बाद शेष पात्रों में अल्प परिकर्म वाले पात्र धोयें, उसके बाद बहुपरिकर्म वाले पात्र धोयें इस तरह पात्र की विशुद्धि क्रमश: करें 140
समीक्षा- यदि पात्र प्रक्षालन विधि की प्राचीनता के सम्बन्ध में ऐतिहासिक अनुशीलन किया जाये तो यह विधि पंचवस्तुक एवं यतिदिनचर्या में उपलब्ध होती है। पंचवस्तुक में पहले मुख शुद्धि करके फिर पात्र शुद्धि करने का निर्देश दिया गया है जबकि यतिदिनचर्या में पहले एक बार पात्र शुद्धि करने के पश्चात मुख शुद्धि करने का उल्लेख है। भोजन करने के अनन्तर तिविहार आदि प्रत्याख्यान करना हो तो दूसरा मत अधिक उचित लगता है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने तीन कल्प पूर्वक पात्र शुद्धि का संकेत मात्र किया है वहीं यतिदिनचर्या में पात्र शुद्धि निमित्त तीन कल्प कहाँ, किस प्रकार किये जाने चाहिए और पात्र किस क्रम पूर्वक धोये जाने चाहिए? इसका प्रतिपादन भी किया गया है। वर्तमान सामाचारी में इस विधि का यथोक्त परिपालन नहीवत जैसा रह गया है।
परिष्ठापनीय आहार और परिष्ठापन विधि
ओघनिर्युक्ति में परिष्ठापनीय आहार के निम्न दो प्रकार निरूपित हैं
1. अशुद्ध भिक्षा - जो भोजन - पानी प्राणातिपात आदि मूल दोषों एवं क्रीत आदि उत्तर दोषों से दूषित हो वह परिष्ठापनीय माना गया है। इसके अतिरिक्त जो भोजन वशीकरण चूर्ण आदि से मिश्रित हो, मंत्र से अभिमंत्रित हो एवं विष मिश्रित हो वह भी निषिद्ध बतलाया गया है। इस प्रकार का आहार मुनि के पात्र में आ जाये तो उसे परिष्ठापित कर देना चाहिए | 41
2. शुद्ध भिक्षा - जो भोजन - पानी आचार्य, ग्लान या अतिथि इन तीन उद्देश्य से अतिरिक्त लाया गया हो और उसका सेवन करने वाला अन्य मुनि न हो तो वह परिष्ठापनीय होता है। कदाच द्रव्य की दुर्लभता के कारण अत्यधिक लाया गया हो या दाता के भावोल्लास से पदार्थ अधिक आ गया हो तो परिष्ठापनीय होता है। आचार चूला में आहार परिष्ठापन की निम्न विधि कही गई है - 42