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188... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
पात्र प्रक्षालन करते समय उसमें आहार का अंश न रह जाए और पूर्ण रूप से तीन कल्प हो इसका उपयोग रखें यानी पात्र की शुद्धि तीन बार करें। यदि आधाकर्मी आहार ग्रहण कर लिया गया हो तो तीन से अधिक बार भी पात्र शद्धि की जा सकती है जिससे दोष की वृद्धि न हो। कदाच दूसरी-तीसरी बार धोने के उपरान्त भी पात्र के बाह्य भाग पर आहार का कोई अंश दिख जाए तो पहले से धोने के लिए जो पानी लिया हो उसी पानी से उसे दूर करें, परन्तु तीन बार धोने की विधि भंग होने के भय से नया पानी न लें।37
भाष्यकार के मतानुसार पात्र का प्रक्षालन करते समय यह विवेक रखना परम आवश्यक है कि जिसमें अलेपकृत आहार लिया गया हो उस पात्र को न भी धोयें तो चल सकता है, किन्तु जिसमें लेपकृत द्रव्य लिया गया हो उस पात्र को अवश्य धोयें।38
अलेपकृत एवं लेपकृत द्रव्य में निम्न वस्तुओं का अन्तर्भाव होता है
कांजी-मांड, उष्ण- तीन बार उकाला आया हुआ गर्म पानी, चाउलोदगचावल का धोया हुआ पानी, संसृष्ट- गोरस के लिप्त पात्र में (दही-दूध के रस वाला) मिश्र बना हुआ अचित पानी, आयाम-ओसामण, लौंग डाला हुआ अचित्त पानी, इमली का पानी, असंस्कारित राब आदि, चावल आदि रुक्ष आहार, सेके हुए जौ का आटा, कच्चे मूंग आदि का आटा, रोटी, गेहूँ का आटा आदि अलेपकृत द्रव्य हैं। इन वस्तुओं के लेने पर पात्र में चिकनाहट नहीं होती। इसके अतिरिक्त दूध, दही, घृत, तेल, मिष्ठान्न, मट्ठा, विगय मिश्रित द्रव्य (गुड़, घी, दही, आदि से निर्मित खाद्यान्न) और अविगय रूप खजूर आदि के रस वाले द्रव्य लेपकृत कहलाते हैं।39
यतिदिनचर्या में पात्र प्रक्षालन की विधि बताते हुए कहा गया है कि आहार करते समय जब तीन कौर शेष रह जाये, तब पात्र की चिकनाई को हाथ की अंगुलियों से साफ करें। फिर तीन कौर खाकर शुद्ध जल से पात्र धोकर उस पानी को पी जायें। उसके बाद मुख की शुद्धि करें। तत्पश्चात उस पात्र में थोड़ा पानी लेकर मंडली के बाहर आयें और पात्र की दूसरी बार शुद्धि करें। फिर सभी साधु प्रक्षालन की जगह पर मंडली आकार में बैठ जायें और बीच में एक साधु खड़े होकर शुद्ध जल देते हुए पात्र की तीसरी बार शुद्धि करवायें। फिर शौच के लिए दो-दो साधुओं को उनके हिसाब से इकट्ठा पानी दें। यह विधि भी गृहस्थ के अभाव में ही उचित है।