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भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियाँ ...187 लिए उपयुक्त स्थान वही माना गया है जो ऊपर से ढ़का हुआ हो, चारों ओर से आवृत्त हो तथा प्रकाश वाला हो।35 विधिपूर्वक आहार करने के लाभ ___यह आहार विधि तीर्थंकर पुरुषों द्वारा आचरित एवं प्रतिपादित है। इस विधि के अनुपालन से स्वाध्याय, चारित्र धर्म और आवश्यक क्रियाओं की हानि नहीं होती है और ध्यान आदि साधनाएँ निर्विघ्न रूप से प्रवर्तित रहती हैं।36 इससे तीर्थंकर आज्ञा का पालन होता है, आज्ञा पालन से भाव शुद्धि होती है, भाव शुद्धि से संयम शुद्धि और संयम शुद्धि से आत्म शुद्धि होती है। इससे अंतत: मोक्ष पद की प्राप्ति हो जाती है। सात्विक आहार का फल
सात्विक आहार साधना का मूल आधार है। शरीर शास्त्रियों के अनुसार हित, मित एवं परिमित आहार करने वाला व्यक्ति स्वयं अपना चिकित्सक होता है। उसको चिकित्सा के लिए अन्य वैद्य की आवश्यकता नहीं होती। वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर सात्विक भोजी स्वभावत: शांत, प्रसन्न एवं निर्मल विचारों से युक्त होते हैं। इन जीवों की श्वासोश्वास गति मन्द होने से दीर्घायु होते हैं जबकि तामसिक भोजी क्रोधी, अहंकारी एवं मलिन चित्त वाले होने से अल्पायु होते हैं।
सात्विक आहार का सीधा असर शरीर पर पड़ता है। उससे मन, बुद्धि और चेतना प्रभावित होती है। उसके फलस्वरूप स्वस्थ, सक्रिय एवं संतोषप्रद जीवन की प्राप्ति होती है तथा व्यक्ति अध्यात्म मार्ग के सन्निकट पहुँच जाता है। पात्र धोने की विधि
आचार्य हरिभद्रसूरि ने पात्र प्रक्षालन की विधि निम्न प्रकार बतलायी है
मुनि आहार करने के पश्चात सबसे पहले हाथ और मुख की शुद्धि करें। उसके बाद पात्र शुद्धि करें। पंचवस्तुक में पात्र प्रक्षालन क्रिया को 'प' कहा है। त्रेप का अर्थ होता है- शुद्धि करना। ___ पात्र भोजन मंडली के स्थान से बाह्य भाग में लाकर धोयें। यदि वहाँ किसी गृहस्थादि की दृष्टि गिरती हो तो पराभव, हल्कापन आदि दोषों के निवारणार्थ पात्र को भोजन मंडली में भी धो सकते हैं।