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186... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
दिगम्बर परम्परा के अनुसार मुनि को निर्दोष आहार की प्राप्ति होने पर दीवार आदि का सहारा लिये बिना, दोनों पैरों के मध्य चार अंगुल का अन्तर रखते हुए खड़े हो जायें। फिर स्वयं के पाँव रखने, जूठन गिरने एवं दाता के खड़े होने योग्य तीन भूमियों का शोधन करें। तदनन्तर दोनों हाथों को अंजली रूप बनाकर उसमें आहार ग्रहण करें।32 इससे सिद्ध होता है कि जैन मुनि. सद्गृहस्थ द्वारा दिया गया विशुद्ध आहार ही ग्रहण कर सकता है।
समीक्षा- यहाँ आहार विधि के अन्तर्गत भोजन मंडली आदि का वर्णन आगमिक व्याख्या ग्रन्थों एवं आचार्य हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों के अनुसार किया गया है। मूल आगमों में इस तरह की चर्चा नहीं है। तदुपरान्त मंडली सम्बन्धी विधि-नियम गीतार्थ सम्मत होने से आचरणीय है। आहार के समय खड़े होने की विधि
दिगम्बर मुनि आहार करते समय दोनों पैरों के मध्य चार अंगुल का अन्तराल रखते हुए समतल और छिद्र रहित भूमि पर खड़े होवें। दीवार वगैरह का सहारा न लें। भोजन के समय अपने पैरों की भूमि, जूठन गिरने की भूमि एवं दाता गृहस्थ के खड़े होने की भूमि-इन तीनों भूमियों की शुद्धता का ध्यान रखें।33 जब तक खड़े होकर भोजन करने का सामर्थ्य हो, तब तक ही भोजन करें।34 आहार भोग की आपवादिक विधि
शास्त्रीय सामाचारी के अनुसार साधु एवं साध्वी को भिक्षा प्राप्त करने के पश्चात अपनी वसति में पहुँचकर ही आहार करना चाहिए। उसके बावजूद भी यदि कोई मुनि दूसरे गाँव में या महानगर के दूरवर्ती उपनगर या मोहल्ले में भिक्षा लेने गया हो, वहाँ अधिक विलम्ब होने के कारण बालक, वृद्ध या रुग्ण अथवा तपस्वी आदि को किसी कारणवश अत्यन्त भूख या प्यास लगी हो तो वह उपाश्रय में आने से पूर्व भी आहार कर सकता है। .
__ आपवादिक विधि के अनुसार भिक्षा में प्राप्त आहार कहाँ किया जाये? इस सम्बन्ध में बताया गया है कि उस गाँव में कोई साधु या उपाश्रय हो तो वहाँ जाकर आहार करे। ऐसा संभव न हो तो कोई एकान्त जगह अथवा दीवार के पास या कोने में कोई स्थान चुनकर वहाँ आहार करे। जैनागमों में आहार के