________________
भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियाँ ...185 (ii) प्रक्षेप विधि- ग्रास को मुख में डालना प्रक्षेप कहलाता है। जैन मुनि की आचार मर्यादा इतनी नियम बद्ध है कि यहाँ आहार चबाने जैसी सामान्य क्रिया भी विधिपूर्वक करने का निर्देश है। नियमत: मुनि आहार करते समय उसे इस प्रकार चबायें कि मुख से 'सुर-सुर' या 'चव-चव' या सबड़के की आवाज न हो। वह आहार को जल्दी-जल्दी न खाये और न धीरे-धीरे खाये। उसे नीचे गिराता हुआ भी न खाये। यह आहार 'अच्छा है या बुरा' इस विषय में न सोचे। मन-वचन-काया को संयम में रखते हुए भोजन करे।30 जैसे सर्प बिल में सीधा प्रवेश करता है वैसे ही मुनि आहार को सीधा निगल जाए, स्वाद के लिए आहार को एक जबड़े से दूसरे जबड़े में न ले जाए।
जैन मुनि की आहार विधि के अनुसार मंडली स्थित मुनियों को जिस पात्र से आहार दिया जाता है वह कुछ साधुओं में ही खाली हो जाये तो उसमें और आहार डालकर शेष साधुओं में वितरित करें। यहाँ इतना विशेष है कि बाल मुनि आदि को दिया हआ अधिक आहार झूठा न हुआ हो तो वह भी सामुदायिक पात्र में लेकर शेष साधुओं को दिया जा सकता है और गुरु का अधिक आहार यदि झूठा भी हो तो भी शेष रहे साधुओं को दिया जा सकता है। गुरु के अतिरिक्त अन्य मनियों का अवशिष्ट आहार झुठा हो तो वह सामूहिक पात्र में नहीं डालें।
5. शुद्धि- सोलह उद्गम, सोलह उत्पादन, दस एषणा इन बयालीस दोषों से रहित आहार का विवेकपूर्वक उपभोग करना आहार शुद्धि कहलाता है। आहार करते समय निम्न सात निर्देशों का भी पालन करना चाहिए। इन्हें सात आलोक (प्रकाश) कहा गया है।
1. स्थान- जहाँ गृहस्थ का आवागमन न हो वहाँ बैठे।
2. दिशा- आहार करते समय शिष्यगण गुरु के आगे-पीछे न बैठे किन्तु गुरु से ईशान या आग्नेय दिशा में बैठे।
3. प्रकाश- जहाँ अच्छा प्रकाश हो वहाँ बैठे। 4. भाजन- आहार पात्र छोटे मुखवाला न हो। 5. प्रक्षेप- कवल प्रमाणोपेत हो।
6. गुरु- भिक्षाटन करते समय जैसा भी आहार प्राप्त हुआ हो, उसे गुरु को दिखाकर एवं उनके समक्ष बैठकर खायें। ___7. भाव- ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि और उनकी अक्षुण्णता को बनाये रखने के लिए आहार करें।31