________________
184... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
4. ग्रहण- मुनि आहार करते समय पात्र में से बड़े आंवले के परिमाण वाला कौर (ग्रास) ग्रहण करें अथवा स्वभावतः छोटे-छोटे ग्रास ग्रहण करें अथवा मुख विकृत न बने उतना ही ग्रास लें अथवा हल्के हाथ से खाया जा सके उतना कौर लें, जिससे ग्रास रखते समय या चबाते समय मुख को बहुत चौड़ा या टेढ़ा न करना पड़े। कवल ग्रहण दो प्रकार से होता है- ग्रहण और प्रक्षेप। पात्र में से ग्रास लेना ग्रहण कहलाता है और ग्रास को मुख में रखना प्रक्षेप कहलाता है। ___(i) ग्रहण विधि- कटकच्छेद, प्रतरच्छेद और सिंह भक्षित इन तीनों में से किसी एक विधिपूर्वक पात्र में से कौर लेना ग्रहण विधि है।27
वृद्ध परम्परानुसार एक ओर से थोड़ा-थोड़ा खाते हुए वह जब तक पूर्ण न हो तब तक उसी ओर से ग्रास लेते रहना। जैसे कि रोटी को एक ओर से खातेखाते वह पूर्ण हो जाती है वैसे ही एक तरफ से खाते हुए आहार को समाप्त कर लेना कटक छेद भोजन है। एक-एक परत खाते हुए रोटी को समाप्त करना जैसे पहले रोटी के ऊपर की परत और बाद में नीचे का भाग खाना प्रतर छेद भोजन है। जिस ओर से खाना प्रारंभ करें उसी तरफ से समाप्त करना सिंह भक्षित भोजन है। आचार्य हरिभद्रसूरि के मतानुसार एकलभोजी साधु द्वारा कटक आदि तीनों प्रकार का आहार करना तथा मांडली भोजी साधु द्वारा कटकच्छेद के सिवाय शेष दो प्रकार का आहार करना विधि सम्मत है।
आगमिक टीकाओं के अनुसार जो आहार जिस रूप में ग्रहण किया है उसे यथावत लेकर आना तथा सरस और नीरस द्रव्यों को मिलाकर खाना ग्रहण विधि है।28
इसके अतिरिक्त काक और श्रृगाल की तरह आहार करना अविधि युक्त है जैसे-कौआ गोबर आदि में छिपे अनाज के दानों को खाता है, शेष को इधरउधर बिखेर देता है तथा खाते समय इधर-उधर देखते रहता है। श्रृगाल अपने भोजन के अलग-अलग भागों को खाता है उसे क्रम से नहीं खाता, उसी भाँति पहले रुचिकर आहार करना, चलते-फिरते आहार करना, पात्र में रहे आहार को उथल-पुथल करके ग्रहण करना, इधर-उधर झांकते हुए आहार करना अविधि भुक्त है। जैसे चावल मेवा आदि से युक्त हो तो चावल को छोड़कर मेवा खा लेना यह आहार की अविधि है। श्रमण को विधि युक्त आहार करना चाहिए।29