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180... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
द्वितीय कायोत्सर्ग विधि
यदि भिक्षाचर्या से लौटकर आहार पानी में लगे दोषों का यथावस्थित चिन्तन न किया हो, भिक्षा लेते समय 'यह शुद्ध है या अशुद्ध ?' इसका उपयोग न रखा हो, गुरु के सन्निकट सम्यक् आलोचना न की हो, भक्तपान अच्छी तरह से न दिखाया हो, कदाचित एषणा सम्बन्धी सूक्ष्म दोष लगे हों अथवा अज्ञानतावश शुद्ध आहार की खोज न की हो तो इन सभी दोषों की विशुद्धि के लिए आठ श्वासोश्वास परिमाण एक नमस्कार मंत्र का कायोत्सर्ग करें अथवा निम्न गाथा का चिंतन करें | 20
अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया । मोक्ख साहण हेउस्स, साहु देहस्स धारणा ।।
अहो! तीर्थंकर परमात्मा ने मोक्ष साधना में हेतुभूत अर्थात साधुओं के शरीर का निवर्हन करने के लिए निर्दोष आहार वृत्ति का प्रतिपादन किया है ।
उसके बाद एक मुहूर्त्त तक विधि पूर्वक स्वाध्याय करें। यह कायोत्सर्ग भिक्षाचर्या के समय लगे हुए दोषों की विशेष शुद्धि के निमित्त किया जाता है। 21 स्वाध्याय एवं उसके प्रयोजन
आहार इच्छुक मुनि भिक्षाचर्या करने के पश्चात एवं आहार करने से पूर्व एक मुहूर्त्त भर स्वाध्याय करें, ऐसा आप्त वचन है।
जैनाचार्यों ने इस समय स्वाध्याय करने के निम्न प्रयोजन बताये हैं - भिक्षा हेतु अधिक घूमने पर और मध्याह्न काल में सूर्य के ताप का विशेष प्रभाव होने से शरीर के वात आदि दोष विषम हो जाते हैं। इस स्थिति में भिक्षाचर्या के तुरन्त बाद आहार कर लिया जाये तो उदर पीड़ा, वमन, विसूचिका यावत मृत्यु भी हो सकती है, जबकि मुहूर्त्त भर स्वाध्याय करने से वात आदि दोष शांत हो जाते हैं और शारीरिक थकान भी दूर हो जाती है। 22
जैन परम्परा के प्राचीन आगमों में भी यह कहा गया है कि भिक्षा ले आने के बाद मुनि स्वाध्याय करे और क्षण भर विश्राम करे। विश्राम करता हुआ मुनि यह चिन्तन करे कि यदि आचार्य और सहवर्ती साधुजन मेरे द्वारा लाए हुए आहार को ग्रहण कर ले तो मैं निहाल हो जाऊंगा और यह मानूंगा कि उन्होंने मुझे भवसागर से तार दिया है। 23