________________
भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियाँ... 179
तो जिस भिक्षा को प्राप्त करने में बड़े दोष लगे हों उन्हें ही प्रकट करें। कुछ आचार्य कहते हैं कि पुरः कर्म और पश्चात्कर्म इन दोषों का उल्लेख करने से सभी दोषों का ग्रहण हो जाता है। यदि अपवाद मार्ग का सेवन न करना पड़े तो उत्सर्गतः भिक्षा सम्बन्धी सर्व दोषों की आलोचना करें | 16
दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि ऋजुप्राज्ञ और अनुद्विग्न मुनि व्याक्षेप रहित चित्त से आलोचना करें। जिस प्रकार से भिक्षा ली हो उसी प्रकार से गुरु को कहें। 17
आहार रखने की विधि
भिक्षाटक मुनि निर्दिष्ट विधि के अनुसार आलोचना कर लेने के पश्चात मुखवस्त्रिका द्वारा मस्तक और पात्र का प्रमार्जन करें। उसके बाद मंडली स्थान या आहार स्थान के ऊर्ध्व, अधो एवं तिरछी दिशाओं का उपयोग पूर्वक निरीक्षण करें।
इस समय ऊर्ध्व आदि दिशाओं का निरीक्षण क्यों करना चाहिए ? इन कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ऊपर में गिलहरी आदि हो, उसकी विष्टा पात्र में न गिर जाये इसलिए ऊर्ध्व दिशा का निरीक्षण करें। तिनका, कील, लकड़ी आदि चुभ न जाये इसलिए अधो दिशा का निरीक्षण करें। श्वान आदि पशु अथवा बालक आदि न आ जाये इसलिए तिरछी दिशा का निरीक्षण करें। झुकते हुए मस्तक पर से कोई जीव या कचरा आदि पात्र में न गिर जायें इस कारण मस्तक का प्रमार्जन करें और झोली समेटते हुए पात्र पर रहे हुए त्रस जीवों का घात न हो जाये, इस कारण पात्र का प्रमार्जन करें। तत्पश्चात भिक्षापात्र को निश्चित स्थान पर रख दें | 18
आहार दिखलाने की विधि
आचार्य हरिभद्रसूरि के मतानुसार जो मुनि भिक्षाटन करके वसति में पहुँचा है वह सर्वप्रथम आत्मसाक्षी से मानसिक आलोचना करें। फिर गुरु के समीप वाचिक आलोचना करें। तत्पश्चात आहार दिखलाकर कायिक आलोचना करें। आहार दिखाने की विधि निम्न है - आहार पात्र को हाथ में लेकर किन्तु खुला होने से बिल्ली आदि आकर उस पर झपटा न मार ले इस कारण शरीर के पीछे के भाग को देखते हुए गुरु के समीप आएं और अर्धावनत होकर आहार- पानी दिखलाएं। 19