________________
178... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
गुरु के समक्ष आलोचना कब करें? यह औत्सर्गिक विधि है कि भिक्षाग्राही मुनि सर्वप्रथम भिक्षा सम्बन्धी दोषों का स्मरण करें, फिर उन दोषों को गुरु के समक्ष प्रकट करें। आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार जब गुरु अव्याकुल, उपशान्त, प्रसन्नचित्त और सामान्य स्थिति में हों उस समय भिक्षा सम्बन्धित दोषों की आलोचना करें। यदि गुरु धर्म प्रभावना, वाचना, उपदेश आदि कार्यों में निरत हों, शीघ्रता में हों अथवा प्रसन्न मुद्रा में न हों तब आलोचना न करें क्योंकि ऐसी स्थिति में वे दोषों का सम्यक रूप से अवधारण नहीं कर सकते हैं। गुरु आहार कर रहे हों तब भी आलोचना न करें, कारण कि गुरु शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ हों और आलोचना सुनने में समय अधिक लग जाये तो आहार ठण्डा हो सकता है, भूख मन्द हो सकती है और भी कई दोषों की संभावनाएँ रहती है। यदि गुरु मलोत्सर्ग हेतु तत्पर हों तब भी आलोचना नहीं करें क्योंकि आलोचना सुनने के कारण मलोत्सर्ग क्रिया को रोक कर रखें तो नये रोगादि उत्पन्न हो सकते हैं यावत मृत्यु भी हो सकती है अतः उक्त स्थितियों में गुरु के समक्ष आलोचना न करें। 14
आलोचना की औत्सर्गिक विधि - पंचवस्तुक के उल्लेखानुसार भिक्षा में लगे दोषों की आलोचना करने वाला मुनि आलोचना काल में गमनागमन प्रवृत्ति न करें, वचन एवं काया से कुचेष्टाएँ न करें और हंसी मजाक आदि दुष्प्रवृतियों का वर्जन करते हुए गुरु के समक्ष सब कुछ क्रम पूर्वक बतलाए कि अमुक व्यक्तियों के हाथों, अमुक पात्रों एवं अमुक स्थितियों में यह आहार ग्रहण किया गया है। यह आलोचना की उत्सर्ग विधि है। 15
आलोचना की आपवादिक विधि- जैनाचार्यों ने आलोचना की आपवादिक विधि का निर्देश करते हुए कहा कि यदि समग्र दोषों की आलोचना करने के लिए अधिक समय न हो अथवा ग्लान मुनि भिक्षा में अधिक घूमने से थक गया हो अथवा किसी ग्लान मुनि को भोजन देने में विलम्ब हो रहा हो अथवा गुरु श्रुताभ्यास आदि का कार्य करने से बहुत थक गये हों तो संक्षेप में आलोचना करें।
उसकी विधि इस प्रकार है- जो भिक्षा शुद्ध हो या जिस भिक्षा में बड़े दोष न लगे हों किन्तु पूर्वकर्म - पश्चात्कर्म आदि लघु दोष लगे हों तो उन्हें सामान्य रूप से ही कहें। विस्तार में न जायें। यदि आलोचना करने का समय अल्प हो