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130... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
परिणाम- सचित्त प्रक्षित एवं गर्हित अचित्त प्रक्षित सम्बन्धी भिक्षा लेने से षट्कायिक जीवों की विराधना, संयम हानि एवं लोकनिन्दा होती है। 3. निक्षिप्त दोष
सचित्त पृथ्वी आदि पर रखी हुई भिक्षा ग्रहण करना, निक्षिप्त दोष है।205 दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि खाद्य यदि पानी, उत्तिंग या पनक आदि पर अथवा अग्नि पर रखे हुए हों तो साधु के लिए अकल्प्य है।206 निक्षिप्त दोष दो प्रकार का होता है- सचित्त और अचित्त।
सचित्त निक्षिप्त के भी दो भेद हैं- अनन्तर और परम्पर।
(i) सचित्त अनन्तर निक्षिप्त- सचित्त पृथ्वी आदि षड्जीवनिकायों पर बिना किसी अन्तराल के रखी हुई भिक्षा लेना, अनन्तर सचित्त निक्षिप्त दोष है।
(ii) सचित्त परम्पर निक्षिप्त- पृथ्वी आदि षड्जीवनिकायों पर अन्तराल युक्त रखी गई भिक्षा लेना, परम्पर सचित्त निक्षिप्त दोष है।
यहाँ अनन्तर शब्द का अर्थ है- व्यवधान, अन्तराल या बाधा रहित तथा परम्पर शब्द का अर्थ है- व्यवधान या अन्तराल युक्त। सचित्त अग्नि और खाद्य सामग्री दोनों एक-दूसरे से सटे हए हों जैसे अंगारे पर रखी गई ककड़ी, अनन्तर सचित्त निक्षिप्त है तथा अंगारे पर तपेली में रखा हुआ दूध परम्पर सचित्त निक्षिप्त कहलाता है।
पृथ्वी, अप आदि षड्जीव निकायों का परस्पर में छह प्रकार से निक्षेप हो सकता है
1. पृथ्वीकाय का पृथ्वीकाय पर। 2. पृथ्वीकाय का अप्काय पर। 3. पृथ्वीकाय का तेजस्काय पर। 4. पृथ्वीकाय का वायुकाय पर। 5. पृथ्वीकाय का वनस्पतिकाय पर। 6. पृथ्वीकाय का त्रसकाय पर।
इसी प्रकार अपकाय आदि के भी 6-6 भेद होते हैं। इनमें एक-एक विकल्प स्वस्थान सम्बन्धी तथा शेष पाँच परस्थान सम्बन्धी होते हैं।207 अग्निकाय का सप्तविध निक्षेप इस प्रकार है