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124... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन 11. संस्तव दोष
भिक्षा ग्रहण करने से पहले या ग्रहण करने के बाद दाता की प्रशंसा करना या सम्बन्ध स्थापित करना संस्तव दोष है।169 यह दोष दो प्रकार से होता है1. वचन संस्तव और 2. सम्बन्धी संस्तव। इन दोनों के भी पूर्व और पश्चात दो-दो भेद होते हैं। निशीथ भाष्य में संस्तव के और भी अनेक भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है।170 इन चारों भेदों की व्याख्या इस प्रकार है
(i) पूर्ववचन संस्तव - भिक्षा लेने से पूर्व दाता के सद्-असद् गुणों का उत्कीर्तन करना कि तुम्हारी कीर्ति दसों दिशाओं में गूंज रही है। इतने दिन तुम्हारे दान के बारे में सुनते थे लेकिन आज तुम्हारी दानवृत्ति को प्रत्यक्ष देख लिया है। इस प्रकार भिक्षा लेने से पहले प्रशंसा करना पूर्ववचन संस्तव दोष है।171
(ii) पश्चात्वचन संस्तव- भिक्षा लेने के बाद दाता की प्रशंसा करते हुए कहना कि तुमसे मिलकर आज मेरे चक्षु पवित्र हो गए। पहले मुझे तुम्हारे गुणों के बारे में शंका थी लेकिन तुमको देखकर आज साक्षात अनुभव हुआ कि तुम्हारे गुण यथार्थ रूप से प्रसिद्ध हैं, यह पश्चात्वचन संस्तव दोष है।172 ___(iii) पूर्वसम्बन्धी संस्तव- भिक्षा लेते समय किसी दान दाता या दान दात्री के साथ माता-पिता या बहिन का सम्बन्ध स्थापित करना, जैसे कि मुनि अपनी वय और गृहिणी की वय देखकर यह कहे कि मेरी माता, बहिन, बेटी या पौत्री ऐसी ही थी, इस प्रकार विवाह से पूर्व होने वाले सम्बन्ध स्थापित करना पूर्वसम्बन्धी संस्तव दोष है।173
__ (iv) पश्चात्सम्बन्धी संस्तव- भिक्षा लेते समय दाता या दात्री के साथ वय के अनुसार श्वसुर, सास या पत्नी के रूप में सम्बन्ध स्थापित करना कि मेरी सास या पत्नी तुम्हारे जैसी थी। यह पश्चात्सम्बन्धी संस्तव दोष है।174
परिणाम- पूर्व-पश्चात वचन संस्तव दोष सम्बन्धी आहार लेने पर माया मृषावाद (कपट पूर्वक असत्य भाषण) और असंयमी की अनुमोदना का दोष लगता है। पूर्व-पश्चात सम्बन्धी संस्तव दोष युक्त आहारादि प्राप्त करने पर यदि गृहस्थ सरल परिणामी हो तो साधु के साथ पारिवारिक सम्बन्धों की तरह व्यवहार कर सकता है, स्नेहवश आधाकर्मी आदि आहार भी मुनि को बहरा सकता है।