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122... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
• शाक्यादि भिक्षुओं के उपासक यदि सरल परिणामी हो तो साधु की प्रशंसा से खुश होकर उसे आधाकर्मी आहार दे सकते हैं। कदाचित मनोज्ञ आहार के लोभ से मुनि स्वयं भी बुद्ध अनुयायी बन सकता है।
• कदाच भिक्षा दाता गृहस्थ शाक्य का उपासक न हो और साधु ने भूल वश उसके समक्ष उनकी प्रशंसा कर दी हो तो वह नाराज होकर साधु को घर से बाहर निकाल सकता है।
• असंयमियों की प्रशंसा करने से हिंसादि पापों की अनुमोदना होती है । इस तरह वनीपक सम्बन्धी भिक्षा में अनेक दोषोत्पत्ति की संभावनाएँ रहती है। 6. चिकित्सा दोष
वैद्य की भाँति किसी गृहस्थ के रोग का निवारण करके या उसकी चिकित्सा विधि बताकर आहार प्राप्त करना, चिकित्सा दोष है।
मूलाचार में आठ प्रकार की चिकित्सा का उपदेश देकर भिक्षा प्राप्त करने को चिकित्सा दोष कहा गया है। 160 अनगार धर्मामृत में इस स्थान पर वैद्यक दोष का उल्लेख है।161 यह दोष दो प्रकार का निर्दिष्ट हैं- सूक्ष्म और बादर ।
(i) सूक्ष्म चिकित्सा - रोग की दवा बतलाकर या वैद्य का परिचय बतलाकर भिक्षा प्राप्त करना, सूक्ष्म चिकित्सा दोष है।
(ii) बादर चिकित्सा स्वयं चिकित्सा करके या किसी दूसरे से चिकित्सा करवाकर भिक्षादि प्राप्त करना, बादर चिकित्सा दोष है। स्वयं वैद्य बनकर वमन, विरेचन आदि करवाना, क्वाथ आदि बनवाना यह भी बादर चिकित्सा है।
सार रूप में जैन मुनि को स्वाद युक्त आहार की प्राप्ति हेतु कभी भी गृहस्थ की चिकित्सा नहीं करना चाहिए तथा बिना किसी अपवाद के औषधि के नाम, वैद्यादि की जानकारी भी नहीं देना चाहिए।
परिणाम - असंयमी गृहस्थ की चिकित्सा पूर्वक भिक्षा प्राप्त की जाए तो निम्न दोषों की संभावना रहती हैं
यदि साधु के द्वारा चिकित्सा करने पर भी किसी कारणवश रोग बढ़ जाये तो रोगी का कुटुम्बी वर्ग साधु को राज दण्ड दिलवा सकता है, जिससे जिन शासन की निन्दा होती है। इसी के साथ जैन साधु भिक्षा हेतु चिकित्सा करते हैं इस प्रकार की भ्रान्ति फैलती है।