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आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं परिणाम ...121
(i) सूचना- ब्राह्मण आदि जाति वाले घरों में जाकर अस्पष्ट रूप से स्वयं को उस जाति का बताकर आहार प्राप्त करना, सूचना आजीविका दोष है। ___(ii) असूचना- किसी के द्वारा पूछे या नहीं पूछे जाने पर भी स्वयं को उस जाति का बताकर आहार लेना, असूचना आजीविका दोष है।
आजीविका के पाँचों भेदों का सामान्य अर्थ इस प्रकार है- 1. जातिमातृपक्ष का परिचय देकर आहार प्राप्त करना 2. कुल- अपना या दूसरों के पितृपक्ष का परिचय देकर भिक्षादि प्राप्त करना। 3. कर्म-कृषि विषयक 4. शिल्पसिलाई-बुनाई आदि 5. गण-मल्ल आदि के समूह की जानकारी बताकर भिक्षादि प्राप्त करना, उस-उस सम्बन्धी आजीविका दोष है।
परिणाम- यदि गृहस्थ सरल हो तो जाति और प्रेम के कारण साधु को आधाकर्मी आहार दे सकता है। अन्य तरह की या गौत्र सेवाएँ भी कर सकता है। जिससे संयम हानि और आत्म विराधना दोनों होती है। इस तरह के दोष कुल आदि के सम्बन्ध में भी समझने चाहिए। 5. वनीपक दोष
वनीपक शब्द वन-याचने धातु से निष्पन्न है। स्वयं को श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान आदि का भक्त बताकर या उनकी प्रशंसा करके आहार की याचना करना, वनीपक दोष है।
पिण्डनिर्यक्तिकार ने उपमा के द्वारा स्पष्ट करते हए कहा है कि जिस बछड़े की माँ मर जाती है, उसके लिए ग्वाला अन्य गाय की खोज करता है, वैसे ही आहार आदि के लोभ से माहण, कृपण, अतिथि और श्वान के भक्तों के सम्मुख स्वयं को उनका भक्त बताकर दीनता से याचना करना वनीपक दोष है।159
जैसे बौद्ध, तापस, परिव्राजक, ब्राह्मण, आजीवक आदि उपासकों के घर पर उनके द्वारा मान्य बुद्ध आदि की प्रशंसा करना जिससे वे भक्ति भाव पूर्वक भोजन बहरायें, इसमें वनीपक दोष लगता है।
परिणाम- जैन दर्शन के अनुसार 'सुपात्र या कुपात्र किसी को भी दिया गया दान निष्फल नहीं जाता' ऐसा कथन भी सम्यक्त्व को दूषित करता है तब शिथिलाचारियों की प्रशंसा का तो कहना ही क्या? वह तो महान दोषकारी है। इससे मिथ्यात्व दृढ़ होता है। वे सोचते हैं कि यदि साधु भी इनकी मान्यताओं की प्रशंसा करते हैं तो निश्चित रूप से इनका धर्म सत्य है।