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120... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
(i) स्वग्राम विषयक - जिस गाँव में साधु रहता है उसी गाँव में परस्पर एक दूसरे के संदेश पहुँचाना, स्वग्राम विषयक दूती दोष है। ___(ii) परग्राम विषयक - समीपवर्ती दूसरे गाँव में जाकर संदेश पहुँचाना, परग्राम दूती दोष है।
इन दोनों के भी प्रकट और प्रच्छन्न (गप्त) की अपेक्षा दो-दो भेद हैं। लोकोत्तर में प्रच्छन्न दती दोष होता है। लौकिक में प्रकट और प्रच्छन्न द्विविध दौत्य कर्म होता है।151
परिणाम - इस नियम से सूचित होता है कि साधु को गृहस्थ सम्बन्धी किसी प्रकार के सामाचारों का आदान-प्रदान नहीं करना चाहिए। बिना किसी कामना के भी दूती का काम करना अकल्प्य है। इससे गृहस्थ परिचय, स्वाध्याय हानि होती ही है।
दौत्य कर्म द्वारा आहार आदि प्राप्त करने पर पाप की प्रेरणा अथवा निरर्थक बोलने से जीव विराधना, संयम हानि, वचन समिति का भंग आदि दोष भी लगते हैं। 3. निमित्त दोष
तीन काल विषयक षड्विध निमित्त लाभ-अलाभ, सुख-दुःख और जीवनमरण बताकर भिक्षा प्राप्त करना, निमित्त दोष है।152 अनगारधर्मामृत के अनुसार अष्टांग निमित्त बताकर दाता को प्रसन्न करते हुए आहार ग्रहण करना निमित्त दोष है।153 मनुस्मृति में भी निमित्त कथन के द्वारा भिक्षा लेने का निषेध है।154
परिणाम- निमित्त दोष से युक्त भिक्षा ग्रहण करने पर स्व-पर की हिंसा का भय रहता है।155 निशीथभाष्य में निमित्त कथन से होने वाले दोषों की विस्तार से चर्चा की गई है।156 4. आजीविका दोष
अपनी जाति, कुल, गण आदि का परिचय देकर भिक्षा लेना, आजीविका दोष है। आजीविका दोष पाँच प्रकार का कहा गया है- जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प।157 मूलाचार में जाति, कुल, शिल्प, तप और ऐश्वर्य- इन पाँच को आजीवक माना है।158
आजीविका के पाँचों दोष दो प्रकार से लगते हैं (i) सूचना-संकेत से और (ii) असूचना- स्पष्ट कहकर।