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102... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन तीसरा व्यक्ति भी मर जाता है। यह क्रम हजार व्यक्तियों तक चलता रहता है। जैसे वेधक विष का प्रभाव हजारवें व्यक्ति को भी मार देता है वैसे ही मिश्रजात आहार सहस्र पुरुषान्तर होने पर भी शुद्ध नहीं होता और उसका सेवन करने वाला मुनि चारित्र का हनन कर देता है। इसलिए मिश्रजात दोष युक्त आहार किसी भी स्थिति में ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि प्रमाद वश पात्र में आ जाये तो कम से कम तीन बार पात्र को धोकर शुद्ध कर लेना चाहिए, अन्यथा विष की भाँति चारित्र का हनन होता है।56 5. स्थापना दोष
साधु को देने की भावना से कुछ आहार अलग निकाल कर रख देना, स्थापना दोष है।57 आवश्यक टीका के अनुसार भिक्षाचरों के लिए रखी गई भिक्षा लेना स्थापना दोष है।58 प्रवचनसारोद्धार की टीकानुसार साधु के निमित्त अलग से रखा गया आहार स्थापना दोष वाला कहलाता है।59 मूलाचार के अनुसार जिस पात्र में भोजन पकाया गया है उससे अन्य बर्तन में निकालकर अपने घर में या दूसरे घर में रखना स्थापना दोष है। इन परिभाषाओं का मूलार्थ यही है कि साधु के उद्देश्य से पृथक रखी गई भिक्षा स्थापना दोष से युक्त होती है।
__यह स्थापना दोष दो प्रकार से होता है- 1. स्वस्थान स्थापना और 2. परस्थान स्थापना। आहार संबंधी वस्तुओं को भोजन बनाने के स्थान पर रखना स्वस्थान स्थापना दोष है तथा छींके, टोकरी आदि पर रखना परस्थान स्थापना दोष है। इन दोनों के दो-दो भेद होते हैं
• स्वस्थान अनंतर स्थापना तथा स्वस्थान परम्पर स्थापना। • परस्थान अनंतर स्थापना तथा परस्थान परम्पर स्थापना।
अनंतर और परम्पर स्थापना भी इत्वरिक और चिरकालिक दो प्रकार की होती है। इस तरह स्थापना दोष छह प्रकार का होता है।
घी तथा गुड़ आदि पदार्थ जिनमें कोई विकार संभव नहीं है उन द्रव्यों को अलग से रखना अनंतर स्थापना है। दूध, इक्षुरस आदि पदार्थ जिनका दही, मक्खन, घी तथा गुड़ आदि से विकार संभव है उन्हें पृथक रखना परम्पर स्थापना है।61 __ पिण्डनियुक्ति में स्थापना दोष को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि किसी साधु ने एक गृहिणी से दूध की याचना की। उस समय उसने कहा