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आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं परिणाम ...101
परिणाम - पूतिकर्म सम्बन्धी आहार की हानियों का चित्रण करते हुए सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि पूतिकर्म आहार को यदि मुनि हजार घरों के अंतरित हो जाने पर भी लेता है तो वह दीक्षित होकर भी गृहस्थ जैसा आचरण करता है। जिस प्रकार समुद्र के ज्वार के साथ किनारे पर आने वाले मत्स्य यदि बालू में फंस जाते हैं तो मांसार्थी ढंक और कंक आदि पक्षियों द्वारा उनका मांस नोचे जाने पर वे अत्यन्त दु:ख का अनुभव करते हैं उसी प्रकार वर्तमान सुख की एषणा में निमग्न एवं पूतिकर्म युक्त आहार लेने वाले साधु उन मत्स्यों की भाँति अनंत दु:खों को प्राप्त करते हैं।50 ___ निशीथ चूर्णिकार के अनुसार यदि साधु पूतिदोष युक्त आहार, उपधि या वसति ग्रहण करता है तो संयम विराधना होती है। अशुद्ध पदार्थों के ग्रहण से देवता प्रमत्त साधु को छल सकते हैं तथा आत्म विराधना के रूप में अजीर्ण या किसी अन्य प्रकार का रोग भी उत्पन्न कर सकते हैं।51 4. मिश्रजात दोष
जो आहार गृहस्थ के साथ पाखंडी, अन्य दर्शनी भिक्षाचर एवं साधु के निमित्त से पकाया गया हो वह मिश्रजात दोष युक्त होता है।52 यह दोष तीन प्रकार का कहा गया है
(i) यावदर्थिक मिश्र - जो आहार गृहस्थ एवं सभी भिक्षाचरों के निमित्त एक साथ बनाया जाता है, वह यावदर्थिक मिश्र कहलाता है।53
(ii) पाखंडी मिश्र- जो आहार गृहस्थ के साथ अन्यदर्शनी साधु के निमित्त पकाया जाता है, वह पाखंडी मिश्र कहलाता है।54
(iii) साधु मिश्र - जो भोजन अपने परिवार एवं साधुओं के लिए एक साथ पकाया जाता है, वह साधुमिश्र कहलाता है।55 _ मिश्रजात सम्बन्धी तीनों प्रकार के आहार जैन श्रमण के लिए वर्जित हैं।
परिणाम- पिण्डनियुक्ति के अनुसार मिश्रजात आहार हजार व्यक्तियों से अंतरित होने पर भी ग्राह्य नहीं है। कदाच विस्मृति वश मिश्रजात आहार का ग्रहण कर लिया जाए तो उसे विसर्जित कर पात्र को तीन बार प्रक्षालित कर लेना चाहिए तभी पात्र की शुद्धि होती है। तीन बार पात्र धोने का रहस्य यह है कि जैसे एक व्यक्ति वेधक विष खाकर मरता है तो उस मृत व्यक्ति के मांस को खाने वाला दूसरा व्यक्ति भी मर जाता है। दूसरे मृत व्यक्ति के मांस को खाने वाला