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96... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
आलोचना निश्छल हृदय से करते हैं तथा प्राज्ञ होने से तज्जातीय भिक्षा सम्बन्धी दोषों का निवारण भी स्वयं कर देते हैं। 27
जैन धर्म अनेकांतवादी है, अतः बृहत्कल्पभाष्य में आधाकर्मी आहार ग्रहण के अपवाद भी बताए गए हैं । दुर्भिक्ष की स्थिति में अथवा आचार्य, उपाध्याय या कोई भिक्षु ग्लान हो तो आधाकर्म आहार ग्रहण की भजना होती है। भयंकर अटवी में प्रवेश करने से पूर्व तीन बार शुद्ध आहार की गवेषणा करने पर भी वैसा आहार प्राप्त न हो तो चौथी बार में आधाकर्मी आहार ग्रहण किया जा सकता है | 28
आधाकर्म की शुद्धि तीन कल्प से ही संभव
आधाकर्मी आहार से युक्त पात्र को खाली करने के पश्चात भी उसका तीन बार शोधन नहीं किया जाता, तब तक वह पूति दोष युक्त कहलाता है। निर्युक्तिकार ने कल्पत्रय की व्याख्या दो प्रकार से की है। बर्तन में आधाकर्म भोजन पकाया, उसको किसी दूसरे बर्तन में निकालकर अंगुली से पूरा साफ कर दिया, यह प्रथम लेप है। इसी प्रकार तीन बार साफ करने तक वह पात्र पूति दोष युक्त कहा गया है। उस बर्तन में चौथी बार पकाया गया आहार निर्दोष होता है अथवा ऐसे बर्तन को तीन बार अच्छी तरह धोकर एवं कपड़े से पोंछकर फिर उसमें आहार पकाया जाए तो वह शुद्ध होता है। इसी प्रकार साधु के पात्र में यदि आधाकर्मी आहार आ जाए तो उसे तीन बार प्रक्षालित करना चाहिए अन्यथा शुद्ध आहार भी पूति दोष युक्त हो जाता है | 29
2. औहेशिक दोष
औद्देशिक का शब्दानुसारी अर्थ है जो आहार साधु के उद्देश्य से निर्मित हो, वह औद्देशिक कहलाता है। जैन व्याख्याकारों ने औद्देशिक के निम्न दो अर्थ किये हैं
1. जैन साधु को दान देने हेतु आरंभ-समारंभ पूर्वक बनाया गया आहार आदि औद्देशिक कहा जाता है।
2. श्रमण, माहण, अतिथि, कृपण आदि भिक्षाचरों के निमित्त से समुच्चय रूप में बनाया गया आहार औद्देशिक है | 30
मूलाचार के अनुसार देवता, पाखंडी, अन्यदर्शनी या कृपण आदि के निमित्त बनाया गया आहार औद्देशिक कहलाता है । 31 पिण्डनिर्युक्ति आदि में औदेशिक दोष के दो भेद किये गये हैं- ओघ और विभाग | 32