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आहार से सम्बन्धित बयालीस दोषों के कारण एवं परिणाम ...95
भगवतीसूत्र के अनुसार आधाकर्मी आहार करने वाला साधु आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों को बांधता है, शिथिल बन्ध वाली कर्म प्रकृतियों को दृढ़ बन्धन के समान कर लेता है, अल्पकालिक स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली कर लेता है, मन्द फल वाली कर्म प्रकृतियों को तीव्र फल वाली कर लेता है, अल्पप्रदेश वाली कर्म प्रकृतियों को बहुप्रदेश वाली कर लेता है तथा दीर्घकाल पर्यन्त चतुर्गति संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करता है।23 ___इस आगम में यह भी कहा गया है कि श्रद्धालु गृहस्थ ने आगन्तुक भिक्षुओं के लिए जो आहार बनाया है, उससे भिन्न शुद्ध आहार हजार घर के अन्तर से भी मिश्रित हो जाये और उसका उपभोग कर लिया जाये तो गृहस्थ और साधु दोनों ही वैशालिक जाति के मत्स्य की भाँति दुःखी होते हैं जैसे-बाढ़ के जल के प्रभाव से सूखे स्थान में पहुँचे हुए वैशालिक मत्स्य मांसार्थी ढंक और कंक पक्षियों द्वारा सताये जाते हैं। इसी प्रकार वर्तमान सुख के अभिलाषी कई श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्त बार विनाश को प्राप्त होते हैं।24
भगवतीसूत्र के पाँचवें शतक में उल्लेख आता है कि आधाकर्म आहार को अनवद्य मानकर स्वयं उसका भोग करने वाला, दूसरों को खिलाने वाला और लोगों के बीच आधाकर्म को अनवद्य प्ररूपित करने वाला मुनि यदि इस तरह के अपराधों का प्रायश्चित्त किए बिना कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो वह विराधक है।25 ___ यहाँ प्रश्न हो सकता है कि प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष बाईस तीर्थंकरों तथा महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों ने आधाकर्म पिण्ड में इतनी छूट दी है कि जिस साधु के लिए आधाकर्म बनाया गया है, उसके लिए वह आहार ग्राह्य नहीं होता लेकिन शेष साधु उसे ग्रहण कर सकते हैं। ऐसा क्यों?26 इसका कारण बताते हुए भाष्यकार ने कहा है कि प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु जड़ होने के कारण स्वकृत अपराधों की आलोचना तो करते हैं लेकिन उसके समान अन्य दोषों का परिहार नहीं कर पाते तथा अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्र जड़ होते हैं। वक्र होने के कारण स्वकृत दोषों को सहजतया स्वीकार नहीं करते और जड़ होने के कारण बार-बार आधाकर्म आदि का सेवन करते रहते हैं। जबकि मध्यम बाईस तीर्थंकरों के साधु-साध्वी ऋजु प्राज्ञ होते हैं। ऋजु होने से कृत दोषों की