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86... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
प्रस्तुत समस्या के संदर्भ में चूर्णि साहित्य में ऐसा उल्लेख है कि ऐसी विकट परिस्थिति में जब जीवन रक्षण के लिए अनौद्देशिक और परिशुद्ध में से किसी एक विकल्प का ही चयन संभव हो तो परिशुद्धता पर बल दिया जाना चाहिए। व्याख्याकारों का यह कहना है कि यदि उस नगर में जैन परम्परा के श्रद्धावान श्रावकों के घर हों तो चाहे मुनि को औद्देशिक आहार लेना पड़े तो लेना चाहिए, किन्तु किसी भी स्थिति में अपरिशुद्ध सचित्त आहार नहीं लेना चाहिए। यदि उस नगर में जैन श्रद्धावान श्रावकों के घर न हों तो उस स्थिति में अनौद्देशिक आहार को ही प्रमुखता देनी चाहिए। चाहे वह अशुद्ध क्यों न हो।
यद्यपि यहाँ इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि वह अनौद्देशिक अशुद्ध आहार भी सचित्त न हो। प्रस्तुत विकल्प से यह प्रतीत होता है कि यदि मुनि जैन श्रावकों की उपस्थिति में अशुद्ध आहार ग्रहण करेगा तो श्रावक वर्ग पर उसका विपरीत प्रभाव होगा। इसलिए श्रावक वर्ग की उपस्थिति में यदि आहार ग्रहण करना आवश्यक ही हो तो परिशुद्ध आहार ही लेना चाहिए। चाहे वह औद्देशिक क्यों न हो। ____जहाँ तक वर्तमान परम्परा का प्रश्न है जैन मुनि मदिरा, मांस आदि महाविगयों का सेवन तो प्राणान्तक कष्ट आने पर भी नहीं करते हैं, किन्तु जमीकन्द, प्याज, लहसुन आदि से युक्त अशुद्ध आहार लेने के विषय में दो परम्पराएँ देखी जाती है। दिगम्बर परम्परा में आहार शुद्धि पर विशेष ध्यान रखा जाता है और इसीलिए इस परम्परा में औद्देशिकता का अधिक विचार नहीं किया गया है। जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें भी अधिकांश मुनिजन अब परिशुद्धता का ही विशेष ध्यान रखते हैं। किन्तु कुछ परम्पराएँ आज भी ऐसी हैं जो अनौदेशिकता पर ही अधिक बल देती हैं, आहार की शुद्धता पर नहीं और इसीलिए गाँव आदि में प्याज, लहसुन आदि से युक्त अनौद्देशिक आहार को प्रमुखता दी जाती है। फिर भी यह कह सकते हैं कि आज अधिकांश मुनिजनों के द्वारा आहार की परिशुद्धता का ही विशेष ध्यान रखा जाता है और
औद्देशिकता को गौण माना जाता है। उनका कहना है कि अशुद्ध आहार के ग्रहण करने पर श्रावक वर्ग पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और वे भी जमीकंद आदि अभक्ष्य भोजन की ओर प्रवृत्त होते हैं। अत: आहार की परिशुद्धता को विशेष महत्त्व देना चाहिए।