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56... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन करे, मूत्रोत्सर्ग नहीं, क्योंकि मल स्थान को स्वच्छ किया जा सकता है जबकि मूत्र स्थान को नहीं। चाणक्य नीति में भी कहा गया है- यदि लघुनीति न की हो तो कोई गुनाह नहीं है इसलिए मलोत्सर्ग करे, किन्तु मूत्रोत्सर्ग नहीं करे। यह नियम मनि जीवन की सभ्यता का परिचायक है। यदि सभ्य संस्कृति का ध्यान न रखा जाये तो जन साधारण को साधु धर्म के प्रति अप्रीति हो सकती है। इससे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बंधता है और उससे संसार की वृद्धि होती है। ___ इस आपवादिक मर्यादा का हार्द यह है कि मुनि मल-मूत्र की शंका को दूर करके ही भिक्षा के लिए गमन करे। यदि किसी कारण वश शंका दूर करना भूल जाये और मार्ग में शंका हो जाये तो पूर्वोक्त विधिपूर्वक उसका उत्सर्ग करें।
4. संघाटक - यदि संभव हो तो दो साधु एक साथ भिक्षार्थ जाएं। यदि भिक्षा की दुर्लभता हो तो गुरु, श्रद्धालु और लब्धिवंत साधुओं को अकेले भिक्षाटन करने की अनुमति दें तथा एकाकी इच्छुक साधु को अनेक तरह से समझाया जाए।
5. उपकरण - इस द्वार की आपवादिक विधि उत्सर्ग मर्यादा के साथ कह दी गई है।
6. कायोत्सर्ग - विस्मृति वश या शीघ्रादि कारणों के उपस्थित होने पर भिक्षाचर्या हेत् बिना कायोत्सर्ग भी जा सकते हैं।
7. मात्रक - मात्रक पर रंग किया हुआ हो तो अपवादत: भिक्षाटन के समय साथ में न रखें।
8. जस्स य जोगो - गुरु के समक्ष यह वाक्य बोलना ही चाहिए, अन्यथा गुरु अदत्त का दोष लगता है। इसमें अपवाद नहीं है।20 भिक्षाचर्या से सम्बन्धित आवश्यक नियम
भिक्षाचर्या, श्रमण जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है। यह चर्या शास्त्रोक्त मर्यादा के अनुसार प्रासुक एवं निर्दोष आहार प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती है। मुनि धर्म का सर्व सामान्य नियम यह है कि वह भिक्षा हेतु न स्वयं किसी तरह की हिंसा करे, न दूसरों से हिंसा करवाये और हिंसा करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करे। आचारांग, दशवैकालिक आदि आगम ग्रन्थों में भिक्षाचर्या सम्बन्धी अनेक नियमोपनियम उल्लिखित हैं जो संक्षेप में इस प्रकार हैं