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________________ वर्तमान युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं उसके नियमोपनियम ...55 गई है। मात्रक रखने की मर्यादा पूर्वकाल की अपेक्षा नि:सन्देह औचित्यपूर्ण है। 7. कायोत्सर्ग - भिक्षाग्राही मुनि उपयोग का कायोत्सर्ग करके आहार हेतु प्रस्थान करें। 8. जस्स य जोगो - भिक्षार्थ मुनि गुरु के सम्मुख ‘जस्स य जोगो' कहकर समस्त प्रकार की कल्प्य वस्तु ग्रहण करने की अनुमति लेकर जाएं। उक्त आठों भिक्षाचर्या सम्बन्धी औत्सर्गिक मर्यादाएँ हैं। मुनियों को इन नियमों का निश्चित रूप से पालन करना चाहिए। मर्यादा सम्बन्धी अपवाद उपर्युक्त आठ मर्यादाओं का अपवादिक स्वरूप इस प्रकार है 1. परिमाण - आचार्य, गुरु, तपस्वी, रोगी आदि की सेवा करनी हो तो गृहस्थ के घर कई बार जा सकते हैं। 2. काल - बीमार या तपस्वी के पारणा आदि का प्रसंग हो तो भिक्षा काल से पूर्व या भिक्षा काल व्यतीत हो जाने के पश्चात भी भिक्षाटन कर सकते हैं। 3. आवश्यक - कदाचित मुनि ने लघुनीति-बड़ीनीति की शंका से निवृत्त हुए बिना भिक्षार्थ प्रस्थान कर लिया हो और कुछ दूर पहुँचने पर शंका हो जाए तो पुन: वसति में लौटकर शंका का निवारण करके फिर जाएं। यदि अधिक दूर पहुँचने पर शंका हो जाए तो अपने हाथ में लिए हुए पात्र आदि सहवर्ती साधु को सुपुर्दकर फिर शंका का निवारण करने जाए। यदि पर्याप्त काल तक शंका को रोकने में असमर्थ हो और निकट में साम्भोगिक (समान आचार वाले) साधु की वसति हो तो वहाँ जाए। यदि वैसा स्थान न मिले तो भिन्न सामाचारी वाले साधुओं के स्थान पर जाए, उसके अभाव में शिथिलाचारी साधुओं के स्थान पर जाये, उसके अभाव में श्रद्धालु श्रावक के घर पर जाए, उसके अभाव में किसी वैद्य के घर जाकर यह समझाये कि 'शरीर के मल-मत्र आदि तीन शल्य कहलाते हैं और मुझे 'मल-मूत्र आदि की शंका है' ऐसा कहे। उसके बाद वह जहाँ अनुमति दे वहाँ शंका का निवारण करे। यदि ऐसा संभव न हो सके तो राजमार्ग में दो घरों के बीच में जहाँ गली हो, वहाँ या किसी गृहस्थ के मालिकी की जगह में शंका का निवारण करे। इसमें इतना विशेष है कि राजमार्ग आदि प्रसिद्ध स्थानों पर शंका का निवारण करना पड़े तो मलोत्सर्ग
SR No.006243
Book TitleJain Muni Ki Aahar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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