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36...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन साधना की ऊँचाइयों को ध्यान में रखते हुए क्रमश: बढ़ाया गया है। उसके बाद तीन प्रतिमाओं का कालमान पूर्वापेक्षा कठिनतर एवं एकसदृश साधना को ध्यान में रखते हुए है। तदनन्तर ग्यारहवीं एवं बारहवीं प्रतिमा का कालमान क्रमश: न्यून होने का कारण शारीरिक संहनन एवं कठिनतम साधना पक्ष की अपेक्षा से है। परमार्थतः पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर प्रतिमाओं को धारण करने वाले मुनि की साधना कठिन होती हैं किन्तु प्रशस्त अध्यवसाय और वेदना में समभाव रखने के कारण वे अल्पावधि में भी महान निर्जरा कर लेते हैं। अत: प्रशस्त भावधारा की अपेक्षा न्यूनाधिक अवधि भी श्रेयस्कारी होती है। प्रतिमाधारी की आवश्यक योग्यताएँ
पंचाशकप्रकरण 26 एवं प्रवचनसारोद्धार 27 की मान्यतानुसार भिक्षु प्रतिमा वहन करने वाले मुनि में निम्नोक्त योग्यताएँ होना जरूरी हैं1. संहनन युक्त-प्रथम के तीन संहनन में से किसी एक संघयण वाला हो।
संहनन दृढ़ हो तो उपसर्गादि शान्तिपूर्वक सहन कर सकता है। 2. धृतियुक्त-धैर्यवान हो। धृतियुक्त आत्मा सम-विषम स्थिति में विचलित ___नहीं होती। 3. महासत्त्ववान-शक्तिशाली एवं पराक्रमी हो। 4. भावितात्मा-जिसकी चेतना सत्त्व आदि पाँच भावनाओं से ओत-प्रोत हो
अथवा प्रतिमा के अनुष्ठान से भावित हो। भावितात्मा साहसपूर्वक साधना
कर सकता है। 5. गुरु अनुमत-गुरु से प्रतिमा वहन करने की अनुज्ञा प्राप्त कर चुका हो। 6. परिकर्मी-प्रतिमा स्वीकार करने से पूर्व गच्छ में ही रहकर तयोग्य क्षमता
अर्जित कर चुका हो अथवा आहारादि का अभ्यास कर चुका हो। परिकर्म दो प्रकार का होता है- आहार परिकर्म और उपधि परिकर्म।
1. आहार परिकर्म-पिण्डैषणा के सात प्रकारों में से प्रथम दो प्रकारों को छोड़कर शेष पाँच में से किसी एक प्रकार से अलेपकृत आहार और दूसरे प्रकार से जल ग्रहण करने का अभ्यासी हो।
2. उपधि परिकर्म-उपधिग्रहण के सम्बन्ध में चार एषणाए रखने वाला हो। जैसे
• भिखारी, पाखंडी या गृहस्थ को देने योग्य कल्पनीय सूती-ऊनी या