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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...35 इन्द्रियों को संवृत्त कर स्थिर होते हैं।122 प्रतिमा धारण का फल
दशाश्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा का सम्यक अनुपालन करने वाले भिक्षु को अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान अथवा केवलज्ञान समुत्पन्न हो सकता है।123 ___ भगवतीसूत्र में वर्णन आता है कि भगवान महावीर ने छद्मस्थ अवस्था के ग्यारह वर्षीय दीक्षापर्याय में सुंसुमारपुर के अशोकखण्ड उद्यान में अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिला पट्ट पर तीन दिन का उपवास कर एक रात्रि की महाप्रतिमा स्वीकार की थी।124 अंतकृतदशासूत्र के अनुसार मुनि गजसुकुमाल ने दीक्षा के प्रथम दिन प्रभु अरिष्टनेमि से अनुज्ञा प्राप्त कर महाकाल श्मशान में एक रात्रि की प्रतिमा स्वीकार की थी। वे अनिमेष नयन से शुष्क पुद्गल पर दृष्टि टिकाये खड़े थे। उस संध्या काल में सोमिल ब्राह्मण वहाँ आया, उसने प्रतिशोध की भावना से उपसर्ग किया-पहले आक्रोश वचन कहे, फिर उसने गजसुकुमाल के मस्तक पर गीली मिट्टी की पाल बाँधी और उसमें जलते अंगारे डाले। मुनि उस वेदना को समभाव से सहन करते हुए सर्व कर्मों को क्षीण कर सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो गए।125
इस प्रकार पहली प्रतिमा एक मास की, दूसरी प्रतिमा दो मास की, ऐसे सातवी प्रतिमा सात मास की, आठवीं से दसवीं प्रतिमा सात-सात दिन की, ग्यारहवीं एक अहोरात्र की और बारहवीं एक रात्रि की होती है। इन बारह प्रतिमाओं का कालमान 28 मास और 27 दिन है तथा तप की संख्या में दत्ति 840, उपवास 26, एकभक्त 28 होते हैं। प्रतिमाओं के कालमान में अन्तर क्यों? ___ यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि प्रतिमाओं की अवधि में भेद क्यों? तथा पूर्व-पूर्व की प्रतिमाओं से उत्तर-उत्तर की प्रतिमाओं की कालावधि न्यूनाधिक क्यों? जबकि होना यह चाहिए कि साधना की ऊँचाइयों के साथ समयावधि भी बढ़ाई जाए। इसका सीधा सा जवाब है कि यहाँ काल मर्यादा सम्बन्धी अन्तर शारीरिक सामर्थ्यता, मानसिक धैर्यता एवं साधना की अभ्यस्तदशा की अपेक्षा से है। पहली से लेकर सातवीं प्रतिमा तक का कालमान