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34... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
कठोर नियमों के अनुपालक होते हैं।
दूसरी से सातवीं प्रतिमा - द्वैमासिकी भिक्षुप्रतिमा से लेकर सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी मुनि की समग्रचर्या पहली भिक्षुप्रतिमा की तरह ही होती है । केवल दत्ति परिमाण में अन्तर है - द्वैमासिकी में दो दत्ति, त्रैमासिकी में तीन दत्ति, चातुर्मासिकी में चार दत्ति, पंचमासिकी में पाँच दत्ति, षाण्मासिकी में छह दत्ति, सप्तमासिकी में सात दत्तियाँ होती है। इस प्रकार जो प्रतिमा जितने मास की होती है उस प्रतिमाधारी के लिए उतनी ही दत्तियाँ होती हैं। 121
आठवीं प्रतिमा-आठवीं से लेकर बारहवीं भिक्षुप्रतिमा में पूर्व प्रतिमाओं से काल एवं तप की अपेक्षा भेद है, इनमें दत्ति परिमाण नहीं होता है। शेष आचरणा पूर्व प्रतिमाओं के समान ही होती है। विशेष वर्णन इस प्रकार हैआठवीं प्रतिमाधारक मुनि उपसर्गों को सम्यक प्रकार से सहन करता है। सात दिन तक एकान्तर निर्जल उपवास और पारणा में आचाम्ल तप करता है। वह गाँव के बाहर उत्तानशयन, पार्श्वशयन अथवा निषधा आसन की मुद्रा में कायोत्सर्ग करता है। यह प्रतिमा सात अहोरात्रि की होती है।
नौंवी प्रतिमा - इस प्रतिमा की आराधना नौंवी प्रतिमा की तरह ही की जाती है, केवल आसनों में नौवीं प्रतिमा के धारक साधु दण्डायतिक, लंगडशयन अथवा उत्कुटुक आसन में स्थित होकर कायोत्सर्ग करते हैं।
दसवीं प्रतिमा - इस प्रतिमा की साधना आठवीं प्रतिमा की भाँति समझनी चाहिए। विशेष इतना है कि दसवीं प्रतिमा धारण करने वाले मुनि गोदोहिका, वीरासन या आम्रकुब्ज आसन में स्थिर होकर कायोत्सर्ग करते हैं। यह प्रतिमा सात अहोरात्रि की होती है।
ग्यारहवीं प्रतिमा - इस प्रतिमा को स्वीकार करने वाले मुनि समग्रचर्या आठवीं प्रतिमा के समकक्ष करते हैं। विशेष इतना है कि इसमें मुनि दो दिन का . निर्जल उपवास कर गाँव के बाहर दोनों पैरों को सटा, दोनों हाथों को प्रलंबित कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थिर रहते हैं । इस प्रतिमा का काल एक अहोरात्र है। बारहवीं प्रतिमा - इस प्रतिमा को धारण करने वाले मुनि गाँव के बाहर तीन दिन का निर्जल उपवास कर, तीसरे दिन सम्पूर्ण रात्रि कायोत्सर्ग मुद्रा स्थिर रहते हैं। कायोत्सर्ग काल में दोनों पैरों को सटा, दोनों भुजाओं को प्रलंबित कर एक पुद्गल पर अनिमेष दृष्टि टिकाते हुए तथा शरीर को कुछ झुकाते हुए
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