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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष... 23
विचार एवं दृष्टि का समायोजन करते हुए निरपेक्ष भावों में वृद्धि की जा सकती है। बारह प्रकार के तप की साधना शरीर एवं कषाय प्रबन्धन की दृष्टि से बहुपयोगी है।
यदि आधुनिक समस्याओं के सन्दर्भ में चरण सत्तरी की प्रासंगिकता पर चिन्तन किया जाए तो वर्तमान भौतिक जगत की अधिकतम समस्याएँ बढ़ती इच्छाशक्ति, भोग-ल - लालसा आदि के कारण हैं। उनमें साधु जीवन के दैनिक नियम इच्छाओं पर नियन्त्रण करवाने में सहायक हैं। पंच महाव्रतों के द्वारा विश्व व्यापी हिंसा, बेईमानी, भ्रष्टाचार आदि का निवारण संभव है। दस यतिधर्म साम्प्रदायिक वैमनस्य, आपसी कटुता, दंभ, पाखण्ड, अहंकार आदि के नाश में सहायक हो सकते हैं। सत्तरह प्रकार का संयम आन्तरिक इच्छा - लालसाओं को समाप्त कर प्रमाद का नाश करता है । वैयावृत्य समाज में बढ़ रही आपसी दूरियों को, वरिष्ठ वर्ग के प्रति बढ़ते अनादर भाव को कम करता है। नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्ति से चारित्रिक दुर्बलता, दाम्पत्य जीवन सम्बन्धी समस्याएँ एवं बलात्कार आदि की समस्याओं का निवारण हो सकता है।
श्रमण के लिए पालनीय 70 उत्तरगुण
परिस्थिति विशेष में पालन किये जाने वाले नियम करण कहलाते हैं। इन नियमों का पालन गोचरी आदि ग्रहण करते समय किया जाता है और इन्हें उत्तरगुण भी कहते हैं। करण के सत्तर भेद निम्नोक्त हैं
चार प्रकार की पिण्डविशुद्धि, पाँच समिति, बारह भावना, बारह प्रतिमा पाँच प्रकार का इन्द्रिय निग्रह, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्ति और चार प्रकार का अभिग्रह | 82
चार पिण्ड विशुद्धि
सजातीय और विजातीय अनेक द्रव्यों का एकत्र होना 'पिंड' कहलाता है तथा आधाकर्मादि दोष से रहित आहारादि ग्रहण करना, पिंडविशुद्धि है। जैन विचारणा में पिंड शब्द का प्रयोग प्रमुखतः आहार के सन्दर्भ में हुआ है। आहार अनेक वस्तुओं का एकत्रित समूह रूप होता है अत: वह पिण्ड कहलाता है। किन्तु यहाँ आहार, वस्त्र, पात्र और शय्या ये चार वस्तुओं को पिण्ड माना गया है। इन्हें निर्दोष रूप से ग्रहण करना पिंडविशुद्धि है।