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18...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
7. प्रणीत भोजन त्याग-प्रणीत यानी गरिष्ठ, राजसिक, अतिस्निग्ध, अत्यन्त मधुर भोजन का सेवन नहीं करना।
दोष-गरिष्ठ आहार करने से धातु पुष्ट होते हैं और उससे कामवासना उत्तेजित होती है, फलत: ब्रह्मचर्य दूषित होता है।
8. अतिमात्रा भोजन त्याग-प्रमाणोपेत आहार करना। रूखा-सूखा भोजन भी अधिक मात्रा में नहीं करना।
दोष-अतिमात्रा में आहार सेवन करने पर ब्रह्मचर्य का भंग एवं शारीरिक पीड़ा की सम्भावना रहती है।
9. विभूषा परिवर्जन-शरीर की विभूषा यानी स्नान, सजावट आदि नहीं करना।
दोष-शारीरिक विभूषा आदि विकारवृद्धि के कारण हैं, अत: इससे ब्रह्मचर्य दूषित होता है।
इन नौ स्थानों का पालन करने से ब्रह्मचर्य विशुद्ध बनता है।
तुलना- नव ब्रह्मचर्यगुप्ति के सम्बन्ध में सर्वप्रथम चर्चा स्थानांगसूत्र में प्राप्त होती है। इसके अनन्तर यह विवेचना समवायांगसूत्र66, उत्तराध्ययनसूत्र67, प्रवचनसारोद्धार68 आदि ग्रन्थों में मिलती है। मुनि के दैनिक प्रतिक्रमणसूत्र के अन्तर्गत भी नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति का समावेश किया गया है। इस प्रकार प्राचीन एवं अर्वाचीन सभी ग्रन्थों में इसका उल्लेख है।
यदि तुलनात्मक पहलू से देखा जाए तो समवायांगसूत्र में ब्रह्मचर्य गुप्तियों का उल्लेख अन्य रूप में मिलता है। समवायांग में तीसरी गुप्ति-'नो इत्थीणं गणाइं सेवित्ता भवइ' अर्थात स्त्रियों के समुदाय के साथ निकट सम्पर्क नहीं रखना, ऐसा है।
समवायांगसूत्र में प्रणीत रस भोजन त्याग और अतिभोजन त्याग गुप्ति की संख्या क्रमश: पाँचवीं एवं छठी है। पूर्वभोगस्मरण का त्याग और शब्दरूपानुपातिता आदि का त्याग सातवें तथा आठवें स्थान पर है। इसमें नौवीं गप्ति का स्वरूप 'नो साया-सोक्ख-पडिबद्धे या वि भवइ' अर्थात सांसारिक सुखोपभोग की आसक्ति का त्याग करना है और यह विभूषापरिवर्जन से अधिक व्यापक है।70
उत्तराध्ययनसूत्र में नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति के उल्लेख के साथ ब्रह्मचर्य के दस