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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...17 शारीरिक और आध्यात्मिक सभी शक्तियों का आधार वीर्य है। ब्रह्मचर्य की रक्षा निमित्त वीर्य को टिकाये रखना परमावश्यक है। जैन साहित्य में ब्रह्मचर्य की रक्षा हेतु नौ बातें आवश्यक मानी गयी हैं। इनके बिना ब्रह्मचर्य का समुचित पालन संभव नहीं है। इन्हें नववाड़ भी कहते हैं क्योंकि ये स्थान बाड़ की तरह साधक की चारों ओर से रक्षा करते हैं। ब्रह्मचर्यगुप्ति के नौ स्थान इस प्रकार हैं64___1. विविक्त वसतिसेवन-ब्रह्मचारी को स्त्री, पशु और नपुंसकों से युक्त स्थान में नहीं ठहरना।
दोष-इन तीनों से युक्त वसति में रहने पर उनकी चेष्टाएँ देख साधु के भीतर मनोविकार पैदा होने की सम्भावना रहती है, इससे ब्रह्मचर्य दूषित होता है।
2. स्त्री कथा परिहार-स्त्रियों से सम्बन्धित कथा-वार्ता और उनके सौन्दर्य आदि की चर्चा नहीं करना।
दोष-स्त्रियों की कथा करने से अन्तर्मन विकारी बनता है।
3. निषद्यानुपवेशन-निषद्या - आसन, अनुपवेशन नहीं बैठना अर्थात स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना। जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो, वहाँ उसके उठ जाने के बाद भी एक मुहूर्त तक नहीं बैठना।
दोष-स्त्री के द्वारा उपयोग में लिये गये आसन पर बैठने से स्पर्शदोष के कारण मन चंचल होने की सम्भावना रहती है।
4. स्त्री-अंगोपांगदर्शन-स्त्रियों के मनोहर और मनोरम अंग-उपांगों को नहीं देखना।
दोष-स्त्रियों के अंगों का अवलोकन करने से कामवासना या मोह कर्म का उदय होता है।
5. कूड्यान्तर शब्द श्रवणादि वर्जन-कुड्यान्तर - दीवार आदि का अन्तर, वर्जन - त्याग करना अर्थात दीवार आदि की आड़ से स्त्री के शब्द, गीत, रूप आदि न सुनना और देखना।
दोष-स्त्रियों के शब्दादि सुनने पर चित्त कामासक्त बन सकता है।
6. पूर्वभोगाऽस्मरण-गृहस्थावस्था में भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना।
दोष-पूर्व भोगों का स्मरण करने से ईंधन प्रक्षिप्त आग की भाँति काम उत्तेजित होता है।