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16...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन सेवा करना 4. तपस्वी की सेवा करना 5. रोगी की सेवा करना 6. शैक्षनवदीक्षित साधु की सेवा करना 7. कुल-(चन्द्रादि कुल)-एक आचार्य के शिष्य परिवार की सेवा करना 8. गण (कोटिकादि गण) एक साथ पढ़ने वाले साधुओं के समूह की सेवा करना 9. संघ की सेवा करना और 10. साधर्मिक-समान धर्म वालों की सेवा करना।
तुलना- यदि ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन किया जाए तो वैयावृत्य के इन दस प्रकारों का उल्लेख सर्वप्रथम भगवतीसूत्र में मिलता है। तदनन्तर इसकी चर्चा आचार्य उमास्वाति एवं आचार्य नेमिचन्द्र ने की है।
यदि दसविध वैयावृत्य का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पूर्वोक्त ग्रन्थों में इनके नाम एवं स्वरूप को लेकर तो लगभग समानता है परन्तु क्रमिक दृष्टि से किंचित मत वैभिन्य दिखता है। भगवतीसूत्र के अनुसार दस प्रकार के वैयावृत्य का क्रम इस प्रकार है- 1. आचार्य 2. उपाध्याय 3. स्थविर 4. तपस्वी 5. ग्लान 6. शैक्ष 7. कुल 8. गण 9. संघ और 10. साधर्मिक।61
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार वैयावृत्य के दस भेद इस क्रम से हैं- 1. आचार्य 2. उपाध्याय 3. तपस्वी 4. शैक्ष 5. ग्लान 6. गण 7. कुल 8. संघ 9. साधु और 10. समनोज्ञ-(एक सामाचारी वाला)।62
प्रवचनसारोद्धार में दसविध वैयावृत्य का क्रम इस प्रकार है- 1. आचार्य 2. उपाध्याय 3. तपस्वी 4. शैक्ष 5. ग्लान 6. साधु 7. समनोज्ञ 8. संघ 9. कुल और 10. गण।63
सार रूप में कहें तो भगवतीसूत्र में उल्लिखित स्थविर एवं साधर्मिक के स्थान पर तत्त्वार्थसूत्र और प्रवचनसारोद्धार में क्रमश: साधु एवं समनोज्ञ शब्द का उल्लेख हुआ है। इस दृष्टि से किंचित भिन्नता है। फिर भी यह मानना होगा कि स्थविर की अपेक्षा साधु और साधर्मिक की अपेक्षा समनोज्ञ शब्द अधिक व्यापक है। नव ब्रह्मचर्यगुप्ति
ब्रह्म-आत्मा, चर्या-लीन होना अर्थात आत्म भावों में विचरण करते हुए, स्व-स्वरूप में मग्न रहना ब्रह्मचर्य है अथवा वीर्य का रक्षण करना ब्रह्मचर्य है। यहाँ गुप्ति का अर्थ सांसारिक विषय-वासनाओं की ओर प्रवृत्त हुई आत्मशक्ति को बचाना है। अत: परभावों से स्वयं को दूर रखना ब्रह्मचर्य गुप्ति है।