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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...5
जिनकल्पी श्रमण प्रारम्भ में स्थविरकल्पी के रूप में दीक्षित होते हैं। इस प्रकार जिनकल्पी श्रमण की द्विविध कोटियाँ हैं-1. पाणिपात्री-हाथ में भोजन करने वाले, 2. पात्रधारी-पात्र में भोजन करने वाले।15 पाणिपात्री जिनकल्पी श्रमण उपधि की दृष्टि से चार प्रकार के होते हैं1. कुछ जिनकल्पी मुखवस्त्रिका और रजोहरण ऐसे दो उपधि रखते हैं। 2. कुछ जिनकल्पी मुखवस्त्रिका, रजोहरण और एक चद्दर रखते हैं। 3. कुछ मुखवस्त्रिका, रजोहरण और दो चद्दर रखते हैं। 4. कुछ मुखवस्त्रिका, रजोहरण और तीन चद्दर रखते हैं। ___पात्रधारी जिनकल्पी श्रमण भी उक्त दो, तीन, चार और पाँच उपकरणों के अतिरिक्त सात प्रकार के पात्रनिर्योग रखने के कारण क्रमश: नौ, दस, ग्यारह
और बारह प्रकार की उपधि धारण करने वाले होने से उनके भी चार भेद होते हैं। इस प्रकार जिनकल्पी श्रमण के मुख्य दो और उत्तरभेद आठ होते हैं।16
स्थविरकल्पी श्रमण के भी उपधि की दृष्टि से अनेक भेद किये जा सकते हैं। उपर्युक्त चर्चा का सार यह है कि जिनकल्पी मुनि हों या स्थविरकल्पी वे न्यूनतम मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपकरण रखते ही हैं। इसलिए नग्नत्व या अचेलक का अर्थ वस्त्रों का सर्वथा अभाव नहीं है, अपितु आवश्यक उपकरण रख सकते हैं।
2. स्थविरकल्पी- जो मुनि वस्त्र.एवं पात्र युक्त तथा संघ के बीच रहकर साधना करते हैं वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है-जो स्वयं संयम मार्ग में पूर्ण स्थिर हैं और च्युत साधकों को धर्म में स्थिर करते हैं, वे स्थविर हैं। ऐसे स्थविर का जो कल्प अर्थात आचार है, उसका अनुसरण करने वाला स्थविरकल्पी कहलाता है।
ज्ञातव्य है कि जिनकल्पी की अपेक्षा स्थविरकल्पी का आचार पक्ष शिथिल होता है। जिनकल्पी स्वयं का कल्याण करते हुए संघ के साथ कोई संबंध नहीं रखते, जबकि स्थविरकल्पी स्व और पर कल्याणकारी होते हैं।
तुलना- यदि ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तन किया जाये तो लगभग जैन मूलागमों में जिनकल्पी या स्थविरकल्पी का नाम निर्देश मात्र प्राप्त होता है। इनकी प्रारम्भिक एवं परिवर्धित चर्चा नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका साहित्य में मिलती है। उनमें भी बृहत्कल्पभाष्य, बृहत्कल्पचूर्णि, निशीथभाष्य,