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4...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन और 10. यति।12
इस प्रकार हम देखते हैं कि 'श्रमण' के समानार्थक अनेक शब्द हैं। श्रमण के प्रकार
जैन परम्परा में श्रमणों का वर्गीकरण उनके आचार-नियम एवं साधनात्मक पक्ष को लेकर किया गया है। मूलत: आचार विधि के आधार पर श्वेताम्बर परम्परा में दो प्रकार के साधु माने गये हैं-1. जिनकल्पी और 2. स्थविरकल्पी। इन्हें अचेलक और सचेलक अथवा पाणिपात्री और सपात्री भी कहते हैं। ___1. जिनकल्पी-सामान्यतया जिनकल्पी मुनि नग्न एवं पाणिपात्री होते हैं, एकाकी विहार करते हैं, दिन के तृतीय प्रहर में आहार-पानी ग्रहण करते हैं, विहार करते समय जहाँ भी चतुर्थ प्रहर समाप्त होता है वहीं रुक जाते हैं, वहाँ से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ते, जब भी बैठने का प्रसंग उपस्थित हो तब उकडूं, गोदुहिका आदि आसन में ही बैठते हैं। एक मुहल्ले में अधिकतम सात दिन ठहरते हैं। कभी अलग-अलग दिशाओं से आने वाले जिनकल्पी मुनि एक साथ एकत्रित हो जायें तब भी परस्पर में संभाषण और धर्मकथा नहीं करते हैं। वे सदा मौन रहते हैं। एक मोहल्ले में एक जिनकल्पी ही भिक्षाटन करते हैं। आज जिस मोहल्ले में भिक्षा के लिए गये हैं, पुन: उस मोहल्ले में न्यूनतम छह दिन भिक्षा के लिए नहीं जाते है, सातवें दिन जा सकते हैं।
__ वे जिस मार्ग से गुजर रहे हों उस मार्ग में यदि शेर, मदोन्मत्त हाथी अथवा अग्नि आदि का उपद्रव हो जाये तो हिंसक पशुओं के भय से एक कदम भी इधर-उधर नहीं मुड़ते किन्तु चींटी आदि आ जाये तो जीव हिंसा न हो एतदर्थ अपने मार्ग से हट जाते हैं।
यदि उनकी आँखों में तिनका आदि या पैरों में कांटा आदि लग जाये तो वे स्वयं नहीं निकालते और न ही दूसरों से निकलवाते हैं। यदि कोई व्यक्ति सहज रूप से निकाल देता है तो वह उसे इन्कार भी नहीं करते हैं। वे शिष्य भी नहीं बनाते हैं और किसी रोग का उपचार भी नहीं करते हैं।13
विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार वही श्रमण जिनकल्पी हो सकता है जो वज्रऋषभनाराच संहनन वाला हो, कम से कम नव पूर्व की तृतीय आचार वस्तु का अध्ययन किया हुआ हो और अधिक से अधिक कुछ कम दस पूर्व तक का श्रुतपाठी हो।14