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________________ श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष... 3 नहीं करने, कुशल कर्मों का सम्पादन करने एवं चित्त को शुद्ध रखने में है । इस प्रकार बौद्ध दर्शन में भी श्रमण जीवन की साधना के दो पक्ष हैं-चित्त शुद्धि रखना आभ्यन्तर साधना है और पाप से विरत होना बाह्य साधना है। वैदिक परम्परा में संन्यास जीवन का अर्थ- फलाकांक्षा का त्याग करना बतलाया गया है। साथ ही लौकिक एषणाओं से ऊपर उठकर सभी प्राणियों को अभय प्रदान करना संन्यास कहा है। इस प्रकार त्रिविध दर्शनों के अनुसार श्रमण का अर्थ समभाव की वृद्धि करना और अहिंसक एवं निष्पाप जीवन जीना सिद्ध होता है। श्रमण के एकार्थवाची नाम सामान्यतया साधु, मुनि, निर्ग्रन्थ आदि को श्रमण कहते हैं । सूत्रकृतांग टीका में श्रमण के चार पर्यायवाची बतलाये गये हैं- 1. माहन - जो किसी प्राणी का हनन नहीं करता है। 2. श्रमण- जो समत्व भाव की साधना के द्वारा अपनी वृत्तियों को शमित करने का प्रयत्न करता है। 3. भिक्षु - जो आगम नीति के अनुसार तप साधना के द्वारा कर्म बन्धनों का भेदन करता है । 4. निर्ग्रन्थ- जो ग्रन्थ अर्थात बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित है, वह निर्ग्रन्थ है। 10 दशवैकालिक नियुक्ति में श्रमण अर्थ को द्योतित करने वाले लगभग बीस एकार्थवाची कहे गये हैं जो निम्न हैं 11 प्रव्रजित- गृह निर्गत, अनगार- गृह रहित, पाषंडी - अष्टकर्मों का ध्वंसक या पाप का खण्डन करने वाला, चरक - तपस्या का आचरण करने वाला, तापस-तपस्या करने वाला, भिक्षु–भिक्षा द्वारा जीवनयापन करने वाला, परिव्राजक - 5- पाप का अपहरण करने वाला, समन - समान मन वाला, निर्ग्रन्थ- बाह्य- आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित, संयत- अहिंसा आदि गुणों से ओतप्रोत, मुक्त - स्नेह आदि बंधनों से मुक्त, तीर्ण- संसार सागर को तैरने वाला, नेता-सिद्धि तक पहुँचाने वाला, द्रवित - राग-द्वेष से शून्य करुणाशील, मुनिसावद्य वचन या निष्प्रयोजन न बोलने वाला, क्षान्त - क्षमाशील, दान्त - इन्द्रिय और कषायों का दमन करने वाला, विरत - प्राणातिपात आदि पापकार्यों से विरत, रूक्ष- रूक्ष भोजी, तीरार्थी-संसार सागर से पार जाने की इच्छा वाला। मूलाचार में अनगार के समानार्थी दस नाम उल्लिखित हैं- 1. श्रमण 2. संयत 3. ऋषि 4. मुनि 5. साधु 6. वीतरागी 7. अनगार 8. भदन्त 9. दान्त
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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